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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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थोड़ी देर से उत्पन्न होती है, किन्तु वह जल्दी तृप्त या शांत नहीं होती है और उत्तरोत्तर तीव्र होती जाती है।302
पुरुषवेद -
पुरुषवेद को तृणाग्नि के समान कहा गया है। जिस प्रकार तृण, घास छोटी-सी चिंगारी पाकर सुलग उठता है और बहुत जल्दी बुझ जाता है, उसी प्रकार पुरुष के मानस में स्त्री को देखते ही कामवासना जाग्रत हो जाती है और कुछ समय में ही शान्त भी हो जाती है।
नपुंसकवेद -
इस वेद को महानगर के दाह के समान कहा गया है। जिस प्रकार नगर में लगी आग बहुत प्रयास करने पर लम्बे समय के बाद ही शांत होती है, उसी प्रकार नपुंसक की कामवासना लम्बे प्रयासों के बाद ही शांत होती है।303
चार गतियों में वेद का प्ररूपण -
पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय में जो कामवासना है, वह नपुंसकवेद के रूप में है। इसी प्रकार, तीन विकलेन्द्रियों, सम्मच्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय, सम्मच्छिम मनुष्य एवं समस्त नैरायिक-जीवों की कामवासना में भी नपुंसकवेद होता है। देवों में दो वेद होते हैं- स्त्रीवेद एवं पुरुषवेद। देवों में नपुंसकवेद नहीं होता और नैरायिकों में नपुंसक के अलावा दोनों वेद नहीं होते। गर्भ से पैदा होने वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों में तीनों वेद होते हैं। चार गति में मनुष्य का ही एक दण्डक ऐसा है, जो अवेदी भी हो सकता है, अर्थात् काम-वासना का नाश मात्र मनुष्यों में ही संभव है। कोई भी जीव एक
302 वेयस्स सरूवं प. इत्थिवेए भंते! किं पगारे पण्णत्ते। ___ उ. गोयमा! फुफुअग्निसमाणे पण्णत्ते। - जीवाभिगम, प्रतिपत्ति 2, सूत्र 51(2) 303 (1) पुरिसवेए णं भंते। किं पगारे पण्णत्ते ?
गोयमा! वणदवग्निजालसमाणे पण्णत्ते। नपुंसगवेए णं भंते! किं पगारे पण्णत्ते ? गोयमा! महाणगरदाह समाणे पण्णत्ते समणाउसो। - जीवाभिगम, प्रतिपत्ति 2, सूत्र 61(2) (2) पुरिसित्थि तदुभयं पइ, अहिलासो जव्वसा हवइ सो उ।
थी-नर-नपु-वेउदओ, फुफुण-तण-नगरदाहसमो।। - प्रथम कर्मग्रंथ, गाथा 22
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