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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 179 नपुंसकवेद पाया जाता है। वेद की तृप्ति का साधन लिंग है। नौवें गुणस्थान के बाद तीन वेदों में से किसी का भी उदय नहीं रहता है, किन्तु लिंग का शारीरिक-लक्षण या लिंग की सत्ता बनी रहती है। वीतराग आत्मा के वेद का क्षय हो जाता है, किन्तु शरीर के साथ लिंग बना रहता है। श्वेताम्बर जैनों की मान्यता है कि तीन लिंगों में से किसी के भी रहते हुए वीतराग-अवस्था प्राप्त हो सकती है, क्योंकि चौदह प्रकार के सिद्धों293 में स्त्रीलिंग सिद्ध, पुरुषलिंग सिद्ध एवं नपुंसकलिंग सिद्धों का भी उल्लेख है। वेद के तीन प्रकार और उनका सम्बन्ध - कामभोग की अभिलाषा को वेद कहते हैं। वस्तुतः, वेद के तीन प्रकार हैं - स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ।94 स्त्रीवेद 295 – पुरुष के साथ काम–भोग की इच्छा को स्त्रीवेद कहते हैं, अर्थात् स्त्री के द्वारा पुरुष से सहवास एवं भोग की इच्छा स्त्रीवेद कहलाती है। पुरुषवेद296 – इसी प्रकार, स्त्री के साथ काम-भोग की इच्छा पुरुषवेद कहलाती है। _नपुंसकवेद297 – स्त्री तथा पुरुष -दोनों के साथ काम भोग की इच्छा को नपुंसकवेद कहते हैं। प्राणी में स्त्रीत्व सम्बन्धी और पुरुषत्व सम्बन्धी- दोनों वासनाओं का होना नपुंसकवेद कहा जाता है, अर्थात् दोनों से संभोग की इच्छा ही नपुंसकवेद है। 293 जिण अजिण तित्थऽतित्था, गिहि, अन्न सलिंग थी नर नपुंसा। __ पत्तेय सयंबुद्धा, बुद्ध बोहिय इक्कणिक्का य। - नवतत्त्व प्रकरण, गाथा 55 294 'विद्यते इति वेदः स्त्रिया वेदः स्त्रीवेदः, स्त्रियाः पुमांसं प्रत्यभिलाष इत्यर्थः तद्धिपाकवेद्यं कर्मापि स्त्रीवेदः, पुरूषस्य वेदः पुरुषवेदः, पुरूषस्य स्त्रियां प्रत्यभिलाष इत्यर्थः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि पुरूषवेदः, नुपंसकस्य वेदो नपुंसकवेदः नपुंसकस्य स्त्रियं पुरूषं च प्रत्याभिलाष इत्यर्थः तद्विपाकवेद्यं कर्मापि नपुंसकवेदः । -प्रज्ञापना वृ.प.468-469 295 स्त्रियः -- योषितः पुरूषं प्रत्यभिलाषः स्त्रीवेदः । नरस्य – पुरूषस्य स्त्रियं अभिलाषो नरवेदः । नपुंसकस्य – षण्टस्य स्त्रीपुरूषौ प्रत्याभिलाषो नपुंसकवेदः। -चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका, पृ. 129 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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