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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
वृत्तिकार अभिनव गुप्त ने भी इसकी व्याख्या इसी प्रकार की है। जैनदर्शन की वेद (कामवासना) और लिंग (शारीरिक-संरचना) की अवधारणा
वैदिक-दर्शन में जहाँ 'वेद' शब्द ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, वहीं जैनदर्शन में वेद शब्द अनुभूति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसके दो रूप हैं- ज्ञानात्मक और संवेदनात्मक। उत्तराध्ययनसूत्र288 में, बेद ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कहा गया है- जिससे तत्त्व का ज्ञान किया जाता है, उसे वेद (आगम) कहते हैं। दूसरी ओर, 'वेद्यते इति वेद:289 इस सूत्र के द्वारा वेद शब्द का अर्थ अनुभूति (वासना) या संवेदना भी बताया गया है। इस आधार पर स्त्री, पुरुष आदि की काम सम्बन्धी आकांक्षाओं को भी वेद माना जाता है।
वेद जैनदर्शन का एक पारिभाषिक शब्द है, जिसका अर्थ मैथुन की आकांक्षा है, जो मोहनीयकर्म के कर्मदलिकों से उत्पन्न होता है। इस अर्थ में स्त्री, पुरुष आदि से मैथुन करने की आकांक्षा का उत्पन्न होना ही वेद है। लिंग और वेद में अन्तर यह है कि लिंग शारीरिक संरचना है और वेद तत्सम्बन्धी कामवासना है। योगीराज श्री आनंदघनजी 291 कृत मल्लिनाथ स्तवनावली में भी वेद शब्द का अर्थ कामवासना की इच्छा से लिया गया है। दूसरे शब्दों में, कामवासना का अनुभव होना ही वेद है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसकवेद के भेद से यह तीन प्रकार का होता है।292 यहाँ वेद शब्द स्त्री, पुरुष आदि के बाह्यलिंग अर्थात् दैहिक-संरचना का द्योतक नहीं है। बाह्यलिंग तो शरीर नामकर्म का फल है। वेद मोह-कर्म के उदय का परिणाम है। यह अवश्य है कि बाह्यलिंग से स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक की पहचान होती है तथा वेद से उसका गहरा सम्बन्ध भी है। प्रायः, स्त्रीलिंग में स्त्रीवेद, पुरुषलिंग में पुरुषवेद तथा नपुंसकलिंग में
288 उत्तराध्ययनसूत्र - 15/2 289 प्रज्ञापनासूत्र, वृ.प. 468-469 290 भगवई विआहपण्ण्ती , -आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 258 291 वेदोदय कामपरिणामा काम्यकर्म सहु त्यागी,
निःकामा करूणारससागर, अनंत चतुष्क पद पागी। - श्री आनंदघनजी भ. मल्लिनाथ
स्तवन, गाथा-7 292 तिविहे वेए पण्णते, तं जहा –(1) इत्यिवेए (2) पुरिसवेए (3) नपुंसगवेए। -
समवायांगसूत्र-156
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