________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
177
7. दंतपात - दन्तक्षत करना। 8. नखनिपात - नख आदि से घात करना। 9. चुम्बन - चूमना। 10. आलिंगन - स्पर्श करना। 11. आदान - काम-अंगों को रागवश स्पर्श करना। 12. करण - कामुक शारीरिक-स्थितियाँ बनाना। 13. आसेवन - मैथुन-क्रिया का आस्वादन लेना। 14. अनंगक्रीड़ा - वासनाप्रधान चित्र आदि देखना तथा अप्राकृतिक
विकृत और उच्छृखल यौनाचार में रुचि रखना।
विप्रयोगजन्य काम के दस भेद
1. अर्थ- स्त्री की अभिलाषा करना। किसी स्त्री की सौन्दर्य- कथा
सुनकर उसे पाने की इच्छा करना, जैसे-पद्मनाभ राजा का द्रोपदी के रूप के विषय में सुनकर उसे प्राप्त करने के लिए आतुर हो
जाना। 2. चिन्ता- उसका कैसा सुन्दर रूप है? उसके कैसे गुण हैं ? इस
प्रकार का रागवश चिन्तन करना। 3. श्रद्धा- स्त्री-संभोग की अभिलाषा करना। 4. संस्मरण- स्त्री के रूप की कल्पना करके अथवा चित्र आदि
देखकर स्वयं को सान्त्वना देना। 5. विक्लव- वियोगजन्य व्यथा के कारण आहार आदि की उपेक्षा
करना। 6. लज्जानाश- गुरुजनों की लज्जा छोड़कर उनके सम्मुख प्रेमिका
के गुणगान करना। 7. प्रमाद- स्त्री के लिए विविध क्रियाएं करना। 8. उन्माद- विक्षिप्त की तरह प्रलाप करना। 9. तद्भावना- स्त्री की कल्पना से स्तंभादि का आलिंगन करना। 10. मरण- राग की तीव्रता के कारण असह्य व्यथा से मूर्च्छित हो
जाना। यहाँ मरण का अर्थ प्राणत्याग से नहीं है, श्रृंगाररस का भंग हो जाने से है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org