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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
स्त्री-संग आदि ऐसे प्रबल निमित्त हैं, जो प्राणी के भीतर रही हई कामवासना को जाग्रत कर देते हैं।
प्रवचन-सारोद्धार 87 में कामवासना के चौबीस प्रकार बताए गए हैं।
मुख्य रूप से दो भेद हैं -1. संप्राप्त, संयोगजन्य काम और 2. असंप्राप्त या विप्रयोगकाम। संयोगजन्य काम (संभोगजन्य कामक्रीड़ा) कामियों के परस्पर संयोग से उत्पन्न सुख है, जो चौदह प्रकार का है। विप्रयोग काम वे कामुक स्थितियाँ हैं, जिनमें संभोग नहीं होता, किन्तु . वासना को संतृप्त करने का प्रयास होता है। इसके भी दस भेद हैं।
काम
संप्राप्त
(संयोगजन्य-काम) 14 प्रकार
असंप्राप्त (विप्रयोग-काम)
10 प्रकार
संयोगजन्य-काम के चौदह भेद - .
1. दृष्टिसंपात- स्त्री के विकारवर्द्धक अंगों का अवलोकन करना। 2. दृष्टिसेवा- हाव-भाव से युक्त दृष्टि मिलाना। 3. संभाषण- कामवर्द्धक वार्तालाप करना। 4. हसित- व्यंग्यपूर्वक मधुर-मधुर मुस्कुराना। 5. ललित- पासा आदि खेलना। 6. उपगूढ- कसकर आलिंगन करना।
कामो चउवीसविहो संपतो खलु तहा असंपत्तो। चउदसहा संपतो दसहा पुण हो असंपत्तो।। तत्थ असंपत्तेऽत्या चिंता तह सद्ध संभरण मेव । विक्कवय लज्जनासो पमाय उम्माय तब्भावो।। मरण च होइ दसमो संपत्तंपि य समासओ वोच्छं। दिट्ठीए संपाओ दिट्ठीसेवा या संभासो।। हसिय ललिओवगूहिय दंत नहनिवास चुंबण चेव। आलिगंण मादाणं कर सेवणऽणंणकीडा य।। - प्रवचनसारोद्धार, साध्वी हेमप्रभा श्रीजी, गाथा 1062-1065
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