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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व सकता है। सत्पुरुष इसीलिए काम आदि विषय-भोगों का सेवन अनुचित मानते हैं। उनका कथन है क़ि कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही सत्पुरुष सम्यक्त्व के प्रभाव से विकारों और विषयों में लिप्त नहीं होते । 285 वे भले ही तिलक आदि लगाकर मुनि का वेश धारण कर लें, यदि काम के प्रति अपनी आसक्ति नहीं छोड़ पाते, तो वे मुक्त भी नहीं हो सकते हैं। कहा गया है कि कुछ लोग तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करते (अर्थात् विषयों में लिप्त नहीं होते) और कुछ सेवन न करते हुए भी विषयों का सेवन करते हैं (अर्थात् उनसे अपने रागात्मक लगाव को छोड़ नहीं पाते ) । इन दोनों में स्पष्ट ही प्रथम प्रकार के लोग ही सच्चे सत्पुरुष हैं, जो कर्म तो करते हैं, किन्तु उनमें लिप्त नहीं होते हैं। 286 यह ठीक वैसे ही है, जैसे अतिथि के रूप में आया कोई पुरुष विवाहादि कार्य में लगा रहने पर भी उस कार्य का स्वामी न होने से कर्ता नहीं होता । कामवासना के प्रकार भारतीय- मनोविज्ञान ने 'काम' को जीवन का आवश्यक अंग माना है। जैनदर्शन की दृष्टि से भी कामवासना सभी प्राणियों में होती है। कामवासना का सम्बन्ध मोहनीयकर्म से है, जिसका सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादिकाल से है। यद्यपि आहार ग्रहण करना, मैथुन - सेवन करना आत्मा का धर्म नहीं है, परन्तु शरीर धारण करने से ये प्रवृत्तियाँ बनी रहती हैं । मानव - भव में भी न्यूनाधिक अंश में चारों संज्ञाए रहती हैं, परन्तु मैथुन - संज्ञा या कामवासना के संस्कार विशेष रूप से पाए जाते है। 285 286 1) वही, 229 ईंधन में ज्वलन - गुण रहा हुआ है, लेकिन जब तक उसे चिनगारी नहीं मिलती है, तब तक ईंधन में रहा हुआ ज्वलन्त गुण प्रकट नहीं होता है । इसी प्रकार, आत्मा में रहे हुए अच्छे-बुरे संस्कारों के जागरण के लिए भी शुभाशुभ निमित्त की आवश्यकता रहती है। मनुष्य के भीतर जो 'कामवासना' रही हुई है, वह कामवासना भी निमित्त पाकर ही जाग्रत होती है। युवावस्था, एकांत, अंधकार, कुसंग, दृश्य, अश्लील साहित्य तथा श्रमणसूत्र 227 - 2 ) सेवतेऽसेवमानोऽपि सेवमानो न सेवते । गाथा-25 Jain Education International 175 अध्यात्मसार, प्रबंध -2, अधिकार 5, For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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