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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
उत्तेजित करने वाले साहित्य का वाचन आदि सभी वाचिक-कामवासना में आते हैं। तरह-तरह की पाश्चात्य कामुक धुनों पर बजने वाला संगीत मन और शरीर पर गहरा प्रभाव डालता है और मनुष्य के काम-अंगों को उत्तेजित करता है, अतः जैनदर्शन में उससे बचने को कहा गया है।
कायिक-काम -
कायिक-कामवासना को प्रोत्साहित करने वाली मुख्यतः पांच इन्द्रियां हैं, जिनका मालिक मन है। मन जो सूचनाओं का आदान-प्रदान करता है, उनका परिणाम शरीर पर होता है और शरीर कामोत्तेजनाओं का शिकार हो जाता है। कामोत्तेजना के भी दो प्रकार हैं -प्राकृत-कामोत्तेजना
और ऐच्छिक-कामोत्तेजना। प्राकृत-कामोत्तेजना मनुष्य के शरीर की बनावट का एक भाग है, जो कर्मप्रकृतियों के अनुसार वेदोदय का निमित्त बनती है। ऐच्छिक-कामोत्तेजना से तात्पर्य है- इच्छापूर्वक या काम की तीव्र लालसापूर्वक दैहिक-चेष्टाएं करना, चरित्रहीन स्त्री-पुरुषों की संगति करना, उनसे यौन सम्बन्ध स्थापित करना आदि, इसलिए कहा गया है कि इन्द्रियों के दास असंवृत्त मनुष्य हिताहितनिर्णय के क्षणों में मोहमुग्ध हो जाते हैं।284
काम की उपर्युक्त सीमाओं को देखते हुए मनुष्य को सही निर्णय लेना आवश्यक है। वस्तुतः, इन्द्रियों के भोग-विषय अपने आप में न अच्छे हैं, न बुरे हैं, किन्तु इनके प्रति राग के कारण जो विकृतियां या विषमताएं आती हैं, वे अप्रशस्त हैं। कामभोगों में यह लिप्तता ही काम को अनुचित बनाती है, अतः आवश्यकता इस बात की इतनी नहीं है कि काम से व्यक्ति पूर्णतः विरत हो जाए, या उसे निरस्त कर दे। जब तक व्यक्ति के पास शरीर है, ऐसा किया भी नहीं जा सकता, किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि वह अपने काम का वृत्त कम करे। कामनाओं को असीमित न होने दे, बल्कि उनकी सीमा निर्धारित करता जाए और धीरे-धीरे इन सीमाओं को, अर्थात कामभोग के दायरे को संकुचित करता जाए और अन्त में उससे मुक्त हो जाए।
काम के प्रति आसक्ति न रखकर एक निःसंग, निष्काम भाव विकसित करे, क्योंकि विषयभोगजन्य विकृति से इसी प्रकार बचा जा
284 मोहं जंति नय असंवुडा। - सूत्रकृतांगसूत्र -1/2/1/20
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