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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 282 परिभ्रमण करता है। भोगों से अनासक्त ही संसार से मुक्त होता है । मिट्टी के सूखे गोले के समान विरक्त साधक कहीं भी विषयों से चिपकता नहीं है, अर्थात् आसक्त नहीं होता है । 283 मनः काम कामवासना को तीन प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है मनकाम, वचनकाम, कायिककाम । वस्तुतः तो तीनों ही काम जैनसाधना-पद्धति में वर्जनीय हैं, परन्तु मनकाम को विशेष वर्जनीय बताया गया है। इसके लिए एक शब्द प्रयुक्त हुआ है- अनंग-क्रीड़ा । अनंग का अर्थ होता है - अंग-हीन । शैव लोगों ने तो काम के प्रतीक देव को मनोज और अनंग नामों से ही उल्लेखित किया है। जैनशास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि अगर आप मानसिक रूप से, अर्थात् मन के द्वारा समागम करते हैं, तो वह भी कामाचार है, मैथुन है । वासनाप्रधान चित्र, चलचित्र आदि देखना तथा अप्राकृतिक, विकृत और उच्छृंखल यौनाचार में रुचि रखना 'अनंगक्रीड़ा' है । इस विषय में जैनदर्शन में बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया गया है। केवल दैहिक - क्रियाओं से कामाचार होता है - ऐसा नहीं है, बल्कि मानसिक तौर पर चिंतन, कथामण्डन अथवा मानसिक स्तर पर क्रिया करना भी काम है। वचन - काम — 282 वही - 25/41 283 मन की तरह कामयुक्त वचनों का आदान-प्रदान करने से, उन्हें सुनने से भी कामवासना जाग्रत होती है। इसके लिए जैनदर्शन में कामकथा या स्त्रीकथा को न करने का निर्देश दिया गया है । समकित के पांच दूषणों में से दो दूषण स्पष्ट रूप से इससे संबंधित हैं- 1. कांक्षा, 2. परपाषण्ड संस्तव, अर्थात् प्रशंसा। इन दो दूषणों में और कुलिंगिसंस्तव के द्वारा पर की प्रशंसा करना, उसके प्रति आकर्षित होना नैतिक जीवन के प्रति अयथार्थ दृष्टिकोण है। अश्लील संगीत, कैसेट आदि को सुनना आदि चरित्र के पतन के कारण होते हैं, अतः सदाचारी पुरुष को अनैतिक आचरण करने वाले लोगों से अतिपरिचय या घनिष्ठ संबंध नहीं रखना ही योग्य माना गया है । वर्त्तमान युग में टीवी, चलचित्र, रेडियो, नाटक, विरत्ता उ न लग्गन्ति, जहा सुक्को उ गोलओ । - 173 Jain Education International उत्तराध्ययन सूत्र 25/43 For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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