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________________ 172 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व जाने से बुद्धि (ज्ञान–विवेक की शक्ति) नष्ट हो जाती है और बुद्धिनाश से मनुष्य का सर्वनाश यानी श्रेयः साधन से सर्वथा अधःपतन हो जाता है। ___ जो मनुष्य शरीर में आसक्त हैं, वे विषयों की ओर खिंचे चले जाते हैं, इस प्रकार बार-बार दुःख उठाते हैं। काम-भोगों के ये कटु परिणाम हैं। इन्हें जान लेना चाहिए।276 इन्द्रिय-विषय या कामवासनाएं व्यक्ति को चारों ओर से घेर लेती हैं। जैसे आवर्त (भंवर) में फंसा व्यक्ति निकल नहीं सकता, वैसे ही विषयों में घिरा हुआ व्यक्ति स्वयं को असहाय पाता है, इसीलिए कहा गया है कि जो विषय है, वह आवर्त (संसार) है और जो आवर्त (संसार) है, वे ही विषय हैं। यहां विषय और आवर्त्त का एकत्व प्रतिपादन कर यह निर्दिष्ट किया गया है कि साधक को यदि विषयों का ग्रहण करना ही पड़े, तो मूर्छा नहीं करना चाहिए, क्योंकि मूर्छा से ग्रस्त व्यक्ति इच्छा के अधीन होकर विषयलोलुप हो जाता है और फिर विषयों से छुटकारा लगभग असम्भव हो जाता है। कामनाओं का अतिक्रमण सहज नहीं है, वे विशाल हैं, दुराग्रही और हठीली हैं, इसलिए अज्ञानी पुरुष उनकी पूर्ति के लिए क्रूर-से-क्रूर कर्म करने को भी उद्यत हो जाते हैं। क्रूर कर्म करते हुए वे सुख के बजाय दुःख का सृजन करते हैं और इस प्रकार 'विपर्यास' को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सुख का अर्थी दुःख को प्राप्त होता है। सुखवाद की यही विडम्बना है। सुख की तलाश अपने आप में दुःखद है। इसी को पाश्चात्य-नीतिशास्त्र में 'पैराडॉक्स ऑव हेडोनिज्म' कहा गया है। इसी बात को उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि सभी कामभोग अन्ततः दुःखद ही होते हैं, 219 क्योंकि संसार के विषय-भोग क्षण भर के लिए सुखदायी प्रतीत होते हैं, किन्तु चिरकाल तक दुःखदायी होते हैं।280 अंदर के विषय-विकार ही वस्तुतः बंधन के हेतु हैं।281 जो भोगासक्त है, वह कर्मों से लिप्त होता है। भोगासक्त संसार में 275 ध्यायतो विषयान् पुंसः, संगस्तेषूपजायते। संगात् संजायते कामः, कामात्क्रोधोऽभिजायते ।। क्रोधाद् भवति सम्मोहः, सम्मोहात् स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति।। - भगवद्गीता, अध्याय-2, श्लोक 62-63 आचारांगसूत्र - 5/11-13 217 जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे - वही-1/93 आचारांगसूत्र-5, 6 तथा 2/151 . सव्वे कामा दुहावहा। - उत्तराध्ययनसूत्र -13/16 खणमित्तसुक्खा बहुकाल दुक्खा। - वही- 14/13 अज्झत्थ हेउं निययस्स बंधो। – वही- 14/19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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