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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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काम पैदा होता है। अगस्त्यसिंहचूर्णि273 में संकल्प और काम का संबंध बताते हुए कहा गया है -
काम! जानामि ते रुपं, संकल्पात् किल जायसे, न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि।
अर्थात, हे काम! मैं तुझे जानता हूं। तू संकल्प से पैदा होता है। मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूंगा, तो तू मेरे मन में उत्पन्न नहीं हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि जब व्यक्ति काम का संकल्प करता है, अर्थात् मन में नाना प्रकार के कामभोगों की कामना करता है, तो वह कामोत्तेजक मोहक पदार्थों की वासना, तृष्णा या इच्छाओं को जाग्रत कर लेता है, तब उन काम्य पदार्थों को पाने का अध्यवसाय करता है और उन्हीं के चिन्तन में रत रहता है, तब यह कहा जाता है कि वह काम-संकल्पों के वशीभूत (अधीन) हो गया है। उसका परिणाम यह आता है कि जब काम-संकल्प पूरे नहीं होते, या संकल्पपूर्ति में कोई रुकावट आती है, या कोई उसका विरोध करने लगता है, अथवा इन्द्रिय-क्षीणता आदि विवशताओं के कारण काम के काम्यपदार्थों का उपभोग नहीं कर पाता, तब वह क्रोध करता है, मन में संक्लेश करता है, झुंझलाता है, शोक और खेद करता है, विलाप करता है, दूसरों को मारने-पीटने या नष्ट करने का प्रयास करता है। इस प्रकार की आर्त-रौद्रध्यान की स्थिति में वह पद-पद पर विषादग्रस्त हो जाता है। पद-पद पर विषादग्रस्त होना ही संकल्प-विकल्पों का परिणाम है।74
भगवदगीता में भी काम के संकल्प से अधःपतन एवं सर्वनाश का क्रम दिया है। कहा है -"जो व्यक्ति मन से विषयों का स्मरण-चिन्तन करता है, उसकी आसक्ति उन विषयों में हो जाती हैं। आसक्ति से उन विषयों को पाने की कामना (काम) पैदा होती है। काम्य-पूर्ति में विघ्न पड़ने से क्रोध होता है। क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढ़भाव पैदा होता है। सम्मोह (मूढभाव) से स्मृति भ्रान्त हो जाती है। स्मृति के भ्रमित या भ्रष्ट हो
273 दशवैकालिक, अगस्त्यसिंहचूर्णि, पृ. 41 274 दशवैकालिकसूत्र, आचार्य श्री आत्मारामजी म., पृ. 20
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