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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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भरना चाहता है, जो कभी भर ही नहीं सकता।257 जिसकी कामनाएं तीव्र होती हैं, वह मृत्यु से ग्रस्त होता है और जो मृत्यु से ग्रस्त होता है, वह शाश्वत सुख से दूर रहता है, परन्तु जो निष्काम होता है, वह न तो मृत्यु से ग्रस्त होता है और न शाश्वत सुख से दूर होता है।
__काम के दो प्रकार हैं - द्रव्य–काम और भाव-काम। विषयासक्त मनुष्यों द्वारा काम्य (इच्छित) इष्ट शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श को काम कहते हैं। जो मोह के उदय के हेतु-भूत द्रव्य है, जिसके सेवन द्वारा शब्दादि विषयों का सेवन होता है, वह द्रव्य-काम है।20 तात्पर्य यह है कि मनोरम रूप, स्त्रियों के हास-विलास या हावभाव एवं कटाक्ष आदि, अंग-लावण्य, उत्तम शय्या, आभूषण आदि कामोत्तेजक द्रव्य द्रव्यकाम कहलाते हैं।201 शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त व्यक्ति आत्मा के वास्तविक रूप को नहीं जान सकता, क्योंकि ये सभी विषय इन्द्रियों से सम्बन्धित हैं। इन्द्रियां शरीर का ही अंग हैं, आत्मा तो अतीन्द्रिय है। शुद्ध आत्मा में तो वर्ण, रस आदि तथा स्त्री, पुरुष आदि पर्याय और संस्थान संहनन होते नहीं हैं। 262 विषय-भोग द्वारा प्राप्त शारीरिक-सुख, जिसे हम वस्तुतः सुख समझते हैं, सुख होता ही नहीं। इसकी तुलना खुजली के रोगी से की जा सकती है। खुजली का रोगी जैसे खुजालने पर हुए दुःख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य कामजन्य दुःख को सुख मानता है।263
न कामज्ञानः कामानां, लभनेह प्रशाम्यति।। - आचारांगसूत्र, टिप्पणी-15, पृ. 147 257 अणेगचित्ते खलु अय पुरिसे, से केयणं अरिहए पूरइत्तए। - आचारांगसूत्र -3/42
गुरू से कामा, तओ से मारस्स अंतो, जओ से मारस्स अंतो, तओ से दूरे।
नेव से अंतो नेव दूरे। - वही- 1/5/1.. 259 नामं ठवणा काया दव्वकामा य भावकाम य। - नियुक्ति, गाथा 161 260 सद्दरसरूवगंधफासा उदयंकरा य जे दवा। - नियुक्ति, गाथा 162
जाणिय मोहोदयकारणाणि वियऽमासादीणि दव्वाणि तेहिं अभवहरिएहिं सद्दाहिणो विसया उद्दिजंति एते दव्वकामा । जिनचूर्णि, पृ. 75 श्रमणसूत्र - 183 श्रमणसूत्र - 49
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