SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 168 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व भी धर्म, अर्थ और काम– इन सभी पुरुषार्थों से मोक्ष को ही 'उत्तम' माना गया है, क्योंकि अन्य किसी में परम सुख नहीं है। 251 वस्तुतः, जैनदर्शन केवल मोक्ष को ही पुरुषार्थ रूप में स्वीकार करता है, परन्तु न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक-मर्यादानुकूल काम का भी जैन-विचारणा में समुचित स्थान स्वीकृत है। 22 चार पुरुषार्थों में सांसारिक-दृष्टि से काम-पुरुषार्थ. का भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। काम वर्तमान समाज-व्यवस्था के लिए आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। इसकी उपयोगिता है, इसमें भी कोई संदेह नहीं है, क्योंकि संसार में जो भी सृजन-कार्य हो रहा है, वह 'काम' की ऊर्जा से ही हो रहा है। “काम ऊर्जा (Sex Energy) मनुष्य की एक ऐसी ऊर्जा है, जो किसी दूसरे के प्रति गतिमान हो, तो यौन बन जाती है और यही स्वयं के प्रति गतिमान हो, तो योग बन जाती है।"253 काम का स्वरूप - जैनदर्शन में भी मनुष्य जीवन में काम के महत्त्व को कभी भी पूर्णतः अनदेखा नहीं किया गया है। आगमिक-साहित्य स्पष्टतः कहता है -"यह पुरुष निश्चित रूप से कामकामी है।254 मनुष्य की कामनाएं विशाल हैं, अनन्त हैं, इतना ही नहीं, वे दुराग्रही और हठी भी हैं। - "गुरु से कामा",255 उनका अतिक्रमण करना सहज नहीं है, इसीलिए कामना को भारी (गुरु) कहा गया है। कामना के बिना कोई क्रिया प्रारम्भ नहीं होती है, परन्तु किसी भी कामना की पूर्ण सन्तुष्टि हो नहीं पाती, क्योंकि यह पुरुष अनेक चित्त (अनेक कामनाओं) वाला है। एक कामना सन्तुष्ट हो नहीं पाती कि मन में दूसरी कामना का जन्म हो जाता है और व्यक्ति दूसरे विषयों की ओर आकृष्ट हो जाता है। कोई अगर यह सोचता है कि शयन से नींद पर, भोजन से भूख पर अथवा लाभ से कामनाओं पर विजय प्राप्त की जा सकती है, तो निश्चित ही वह भ्रम में है। 256 मनुष्य मानों चलनी से पानी 251 परमात्मप्रकाश, योगिन्दुदेव, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, आगास, वि.सं. 2029, 2.3 252 मूल्य और मूल्यबोध की सापेक्षता का सिद्धान्त- डॉ. सागरमल जैन, श्रमण, जनवरी 1992, पृ.10-11 253 महावीरवाणी, ओशो-1, पृ. 405 . 254 'कामकामी खलु पुरिसे' - आचारांगसूत्र-1/123 255 वही- 5/2, पृ. 176 250 न शयानो जेयन्द्रिां , न भुंजानो जयेत् क्षुधाम् । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy