________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
167
रहते हैं। यही कारण है कि नीचे-नीचे की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देवों का सुख अधिकाधिक माना गया है।
मैथुन-संज्ञा के स्वरूप को जानने के पश्चात् आगे हम कामवासना के स्वरूप, उसके लक्षण एवं प्रकारों की चर्चा करेंगे।
कामवासना का स्वरूप एवं लक्षण -
'काम' शब्द (कम् + घ} धातु से बना है, जिसका अर्थ है - कामना, इच्छा (Desire), स्नेह, अनुराग और दूसरा अर्थ है- प्रेम, विषय-भोग की इच्छा या यौन सम्बन्ध (Sex) स्थापित करना आदि। उसी प्रकार, 'वासना' शब्द वास् + णिच् + युच् + टाप) धातु से बना है, जिसका अर्थ है- स्मृति से प्राप्त ज्ञान, रुचि, कल्पना, मिथ्या-विचार, अज्ञान, अभिलाषा। इस प्रकार, कामवासना का शाब्दिक अर्थ- कामनापूर्वक या अभिलाषापूर्वक यौन अंगों के स्पर्श या संघर्षण की इच्छा है। काम–भोग सम्बन्ध को 'काम' कहते हैं। विषयासक्त मनुष्यों द्वारा काम्य अर्थात् इष्ट शब्द, रूप, गन्ध, रस तथा स्पर्श को काम कहते हैं।48 भारतीय ऋषि-मुनियों ने मनुष्य-जीवन, के चार पुरुषार्थ बताए हैं। 'पुरुषार्थ चातुष्ट्य' की अवधारणा हिन्दू- धर्मदर्शन की आधारशिला है। इस अवधारणा का उल्लेख हमें जैनदर्शन में मोक्ष-चर्चा के प्रसंग में मिलता है। हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में पुरुषार्थ-चतुष्टय का उल्लेख किया है। दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थ 'ज्ञानार्णव' में भी कहा गया है कि प्राचीनकाल से ही महर्षियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – ये पुरुषार्थ के चार भेद माने हैं,249 किन्तु इस स्वीकृति के बावजूद पहले तीन पुरुषार्थ नाशसहित और संसार के रोगों से दूषित बताए गए हैं, अतः ज्ञानी पुरुषों को केवल मोक्ष के लिए ही प्रयत्न करने को कहा गया है। इसी प्रकार, परमात्मप्रकाश में
247 काम्यन्तेऽमिलष्यन्त एव न तु विशिष्टशरीर संस्पर्शद्वारेणोपयुज्यन्ते ये ते कामाः । ___मनोज्ञेषु शब्देषु संस्थानेषु च । - भगवतीसूत्र 248 1) ते इट्ठा सद्दरसरूवगंधफासा कामिज्जमाणा विसयपसत्तेहिं कामा भवंति।- आवश्यक चूर्णि,
पृ. 75 2) शब्दरसरूपगन्धस्पर्शाः मोहोदयाभिभूतैः सत्त्वैः काम्यन्त इति कामाः । – हारिभद्रीय टीका
पृ. 85 249 धर्मश्चार्थश्चकामश्च मोक्षश्चेति महर्षिभिः ।
पुरूषार्थोऽयमुद्दिष्टश्चतुर्भेदः पुरातनैः ।। - ज्ञानार्णव, 3/4 शुभचन्द्र, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, आगास,1978 250 ज्ञानार्णव' - 3/3, वही. 4.5
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org