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________________ 162 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व ऐसी शक्ति है, जो दूसरे के प्रति गतिमान हो, तो यौन सम्बन्ध (Sex) बन जाती है। ऊर्जा एक है, मात्रा तथा दृष्टिभेद से सारा जीवन भिन्न हो जाता है। जिस प्रकार किसी के कटु शब्द जीवनभर याद रहते हैं, उसी प्रकार किसी सुन्दर स्त्री का रूप-सौन्दर्य अथवा उसके मधुर शब्दों के बारे में जब हम चर्चा करते हैं, तो उस स्त्री के प्रति कामवासना जाग्रत हो जाती है। व्यक्ति उस रूप को देखने और शब्द को सुनने के लिए कामातुर हो जाता है और पुन:-पुनः उस रूप का पिपासु बना रहता है एवं वासना को पुष्ट करता रहता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जो काम–गुण है, इन्द्रियादि के शब्दादि विषय हैं, वे ही आवर्त या संसारचक्र हैं।241 ये विषयातुर मनुष्य ही दूसरे को उसी प्रकार परिताप देते हैं, जिस प्रकार अमरकंका नगरी का राजा पद्मराज नारदजी के मुख से द्रौपदी के सौन्दर्य की चर्चा सुनकर कामातुर बन गया और देव की सहायता से द्रौपदी का अपहरण कर उसे अपने महल में लेकर आ गया। 242 आधुनिक युग में भी कॉलेजों का सहशिक्षण, स्वतंत्र जीवन, टी.वी. वीडियो और ब्लू फिल्मों के देखने एवं उसकी चर्चा करने के कारण मैथुन-संज्ञा भड़क उठती है। जहर तो खाने पर ही मारता है, जहर को देखने से किसी की मौत नहीं हो जाती है, किन्तु स्त्री-दर्शन और स्मरण भी आत्मपतन में निमित्त बन जाते हैं। वासनात्मक-चिन्तन करने से - __ मैथुन-संज्ञा की उत्पत्ति वासनात्मक चिन्तन के कारण भी होती है, इसीलिए ब्रह्मचर्य की नौ वाड़ में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पूर्वकृत कामक्रीड़ा का स्मरण करने से भी कामभोग के संस्कार पुनः जाग्रत हो जाते हैं। गृहस्थ-जीवन की पूर्वावस्था में यदि स्त्री-संसर्ग आदि किया हो, तो उसे पुनः याद नहीं करना चाहिए, क्योंकि वासनात्मक-चिन्तन करने से भी वासना जाग्रत हो जाती है। उत्तराध्ययनसूत्र43 में स्पष्ट कहा गया है 241 1) जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे - आचारांगसूत्र- 1/1/5 2) आतुरा परिताति, - वही, 1-1-6 242 अ) स्थानांगसूत्र - 10/160 .. ब) प्रवचन-सारोद्धार, आश्चर्यद्वार 138 हासं किइडं रइं एवं दप्पं सहभुत्तासियाणि य, बम्भचेररओ थीणं नाणुचिन्ते कयाइ वि।-उत्तराध्ययनसूत्र-16/6 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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