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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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चारित्रमोहनीय-कर्म के उदय से -
चारित्रमोहनीय-कर्म की एक प्रवृत्ति वेद, अर्थात् संभोग की इच्छा है, उसी के विपाकोदय से स्त्री-पुरुष में जो स्पर्श आदि की इच्छा होती है, उस इच्छा के अनुरुप जो वचन, प्रवृत्ति तथा कर्म (मैथुनकर्म) होता है, वह मैथुन है। The lustful desire as well as action of male and female to copulate is incontinence.237 स्त्री-पुरुष का वासनायुक्त संभोग का भाव एवं कार्य चारित्रमोहनीय-कर्म के उदय से ही होता है, क्योंकि स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद मोहनीय-कर्म की प्रकृतियाँ हैं। 238 काम–भोग की अभिलाषा को वेद कहते हैं। वेद, अर्थात् वासना। पुरुषवेद के उदय से स्त्री-संभोग की इच्छा होती है, स्त्रीवेद के उदय से पुरुष-संभोग की इच्छा होती है, नपुंसकवेद के उदय से स्त्रीसंभोग और पुरुषसंभोग -दोनों की इच्छा पैदा होती है। 239 जैन-शास्त्रों के अनुसार, वेदों के उद्दीपन के कारण ही मैथुन-संज्ञा उत्पन्न होती है। जैन-कथासाहित्य के अनुसार, चारित्रमोहनीय-कर्म का जब तीव्र उदय हुआ, तो मासक्षमण के पश्चात् पुनः मासक्षमण जैसी उग्र तपश्चर्या करने वाले संभूति मुनि केवल स्त्री की केशराशि के स्पर्शमात्र से कामातुर हो गए और स्त्री-सुख को पाने के लिए. अपनी संयम की उत्कृष्ट साधना का भी सर्वनाश करने के लिए तैयार हो गए। प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि धर्म और संयमादि गुणों में निरत ब्रह्मचारी पुरुष भी मैथुनसंज्ञा के वशीभूत होकर क्षणभर में चारित्र- संयम से भ्रष्ट हो जाता है। काम-सम्बन्धी चर्चा करने से -
मैथुन-संज्ञा की उत्पत्ति का तीसरा प्रमुख कारण काम-सम्बन्धी चर्चा करना है। काम का एक अर्थ कामना अर्थात इच्छा (Desire) है और उसका दूसरा अर्थ है- यौन सम्बन्ध (Sex), काम-ऊर्जा मनुष्य के पास
236 तत्त्वार्थसूत्र, उपाध्याय श्री केवल मुनि, पृ. 314 237 तत्त्वार्थसूत्र, छगनलाल जैन, पृ. 190 238 सोलम इमे कसाया एसो नवनोकसायसंदोहो,
इत्थी परिस नपंसकरूवं वेयत्तयं तंमि। - प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1257 वेदोदय कामपरिणामा काम्यकर्म सह त्यागी, निःकामा करूंणारससागर, अनंत चतुष्क पद पागी। श्री मल्लीनाथ स्तवना, योगिराज
आनंदघनजी 240
प्रश्नव्याकरणसूत्र - 4/90
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