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- जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
. स्थानांगसूत्र में मैथुन-संज्ञा की उत्पत्ति के चार कारण बताए गए
(1) नामकर्मजन्य दैहिक-संरचना के कारण। (2) चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय से। (3) काम-भोग सम्बन्धी चर्चा करने से। (4) वासनात्मक-चिन्तन करने से।
नामकर्मजन्य दैहिक-संरचना के कारण - .
जिस कर्म के उदय से जीव विभिन्न प्रकार के शरीर, रूप, रस, गंध, वर्ण, स्पर्श, संघयण, संस्थान, आकृति, प्रकृति आदि प्राप्त करता है, उसे नामकर्म234 कहते हैं। नामकर्म के उदय के कारण ही दैहिक-संरचना का निर्माण होता है। इसी कर्म के कारण स्त्री और पुरुष की दैहिक-संरचना में भिन्नता होती है। स्त्री का स्वरूप सुन्दर, सुडौल और प्रकृति से ही कोमल और सौम्य होता है, इसलिए स्त्री को सुन्दरता की प्रतिमूर्ति कहा जाता है। स्त्री के रूप में आसक्त कवि को स्त्री के मुख में चन्द्रमा की सौम्यता के दर्शन होते हैं और वह उसे 'चन्द्रमुखी' की उपमा देता है। स्त्री के राग के कारण ही स्त्री की गति में हाथी (गज) जैसी मस्ती होती है, इसलिए उसे गजगामिनी कहा जाता है। उसके नेत्रों को कमल की पंखुड़ी के समान मानकर उसे कमलनयनी कहते हैं,235 परन्तु पुरुष की दैहिक-संरचना स्त्री की अपेक्षा कुछ कठोर एवं भिन्न होती है। इसी विपरीत दैहिक-संरचना के कारण पुरुष का आकर्षण स्त्री में और स्त्री का आकर्षण पुरुष में होता है, अतः विपरीत लिंग को प्राप्त करने की, परस्पर बात करने की और स्पर्श करने की इच्छा होती है, उससे ही मैथुन-संज्ञा की उत्पत्ति होती है। स्त्री और पुरुष-दोनों के परस्पर मिथुन-भाव अथवा मिथुन-कर्म की इच्छा को ही मैथुन-संज्ञा कहा जाता
235 उऊहिं ठाणेहिं मेहुणसण्णा समुप्पज्ज, तं जहा -
1) चितमंससोणिययाए 2) मोहणिज्जस्स _3) कम्मस्स उदएणं, मतीए, 4) तदट्ठोवओगेणं - 4/4, सूत्र 58 234 उत्तराध्ययनसूत्र – 33/13 235 ब्रह्मचर्य, श्री रत्नसेन विजयजी, पृ.56
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