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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व जैनदर्शन की दृष्टि से जिस तरह से आहार, भय, परिग्रह आदि संज्ञाएं सभी जीवों में पाई जाती हैं, वैसे ही मैथुन - संज्ञा भी है। कामवासना का सम्बन्ध चारित्रमोहनीय कर्म से है, जिसका सम्बन्ध आत्मा के साथ अनादिकाल से चला आ रहा है। अनादिकाल से सम्बन्ध होने के कारण भी यह वृत्ति अच्छी हो, सम्यक् हो - यह बात नहीं है, क्योंकि अनादिवृत्ति को खुली छोड़ने में समझदारी नहीं है, जैसे- भूख लग गई, तो इसका अर्थ यह नहीं कि जो भी मन में आया, वही उदरस्थ कर लिया जाय । भूख की तरह काम—भोग भी सहज है, पर इस पर नियंत्रण नहीं होगा, तो पशु और मानव में कोई अन्तर ही नहीं रह जाएगा। क्योंकि सच्चे साधक की दृष्टि से कामभोग रोग के समान है, 224 अतः काम पर धर्म का नियन्त्रण होना अतिआवश्यक है। भविष्य में कष्ट भोगना न पड़े, इसलिए अभी से अपने को विषय-वासना से दूर रखकर अनुशासित हो जाओ । 225 158 व्यावहारिक - जीवन में हम देखते हैं कि मैथुन - संज्ञा सभी जीवों में पाई जाती है। यहाँ तक कि एकेन्द्रिय वनस्पति - जगत् में भी यह संज्ञा स्पष्ट दिखाई देती है, जैसे- कुरुबक, अशोक, तिलक आदि के पेड़ स्त्री का आलिंगन, पाद-प्रहार, कटाक्ष, निक्षेप आदि से फलते-फूलते हैं । गिलखी, तोरु आदि शाक की उत्पत्ति भी तितली और भंवरों के द्वारा नर एवं मादा पुष्पों के परागकुंजों के आदान-प्रदान से होती है। 226 चार गतियों में से मनुष्य और तिर्यंच में। दुःख - वेदना अधिक होने के स्त्री- जाति तीन ही गतियों में होती है- देव, नरक -गति में स्त्री- जाति नहीं होती और कारण वहाँ मैथुन - संज्ञा की अल्पता होती है । मैथुन तीन प्रकार के कहे गए हैं- (1) दिव्य, (2) मानुष्य (3) तिर्यक्ोनिक | तीन मैथुन को प्राप्त करते हैं - (1) देव (2) मनुष्य ( 3 ) तिर्यंच और तीन ही मैथुन का सेवन भी करते हैं- (1) स्त्री (2) पुरुष (3) नपुंसक 1227 224 225 अदुक्खु कामाइ रोगवं - सूत्रकृतांगसूत्र - 1 / 2/3/2 मा पच्छ असाधुता भवे, 1/2/3/7 अच्चेही अणुसास अप्पगं । वही- 1 226 प्रवचनसारोद्धार, संज्ञाद्वार 145, साध्वी हेमप्रभा श्रीजी, पृ. 80 227 तिविहे मेहुणे पणते, तं जहा - Jain Education International दिव्वे, माणुस्सए तिरिक्खजोणिए । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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