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________________ 10 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व प्राक्कथन -प्रो. सागरमल जैन मानवजीवन, प्राणीयजीवन का ही एक विकसित रूप है। व्यवहार के प्रेरक तत्त्वों में दोनों में बहुत कुछ समानता है, अन्तर मात्र यह है कि मनुष्य में विवेक और संयम की शक्ति भी रही हुई है और इसके आधार पर वह अपने व्यवहार को परिष्कारित एवं परिमार्जित भी कर सकता है। जीवन-व्यवहार को परिष्कारित करने की यह कला ही उसे धार्मिक बना देती है। विवेक और संयम की शक्ति- ये दो ही ऐसे विशिष्ट तत्त्व हैं, जो मानवीय व्यवहार को अन्य प्राणियों के व्यवहार से पृथक् करते हैं। मानव चाहे तो अपने व्यवहार को इन दोनों तत्त्वों के आधार पर परिष्कारित या परिमार्जित कर सकता है, अन्य . अविकसित प्राणियों में विवेक-शक्ति का अभाव होता है। मनुष्य में वासना और विवेक-दोनों ही विरोधी शक्तियाँ रही हुई हैं, जो उसके व्यवहार को प्रेरित करती रहती हैं । कभी मानव-व्यवहार वासना से चलित होता है और वह भी पशुवत् व्यवहार करता है। कहा भी गया हैं-आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति मनुष्य और पशु दोनों में समान रहती है, फिर भी विवेक उसे यह सिखा देता है कि उसे क्या खाना है, कब खाना है और कैसे खाना है। जैन-दर्शन में व्यवहार के इन प्रेरक तत्त्वों को 'संज्ञा' शब्द से अभिव्यक्त किया गया है। जैन ग्रन्थों में हमें चार, दस और सोलह संज्ञाओं का विवरण मिलता है। इन सोलह संज्ञाओं में विवेकशीलता और धर्म ही ऐसे हैं, जो शेष संज्ञाओं को परिष्कारित और परिमार्जित कर सकते हैं। आधुनिक मनोविज्ञान में इन्हें मूलप्रवृत्ति (Instinct) के नाम से जाना जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान में मेकड्यूगल ने प्राणी-व्यवहार के प्रेरक तत्त्व के रूप में चौदह मूल प्रवृत्तियों की चर्चा की है, जो बहुत कुछ रूप में जैन-दर्शन की संज्ञा की अवधारणा से समानता रखती है। जैन-दर्शन में जिन सोलह संज्ञाओं का विवरण उपलब्ध है वे निम्न हैं- १. आहार, २. भय, ३. मैथुन, ४. परिग्रह (संग्रहवृत्ति), ५. क्रोध, ६. मान (अहंकार), ७. माया (कपटवृत्ति), ८. लोभ, ९. धर्म, १०. ओघ, ११. लोक, १२. सुख, १३. दु:ख, १४. मोह, १५. शोक और १६. विचिकित्सा। इन सोलह संज्ञाओं में ओघ और लोक-संज्ञा वस्तुतः अनुकरणात्मक प्रवृत्ति की सूचक हैं, जबकि धर्मसंज्ञा. विवेकात्मक है, शेष तेरह संज्ञाएँ वासनात्मक जीवन की ही परिचायक हैं | वासनात्मक एवं अनुकरणात्मक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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