________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
प्रवत्तियाँ कभी विकसित प्राणियों में भी पाई जाती हैं. मात्र विवेकजन्य धर्म ही एक ऐसा तत्त्व है, जो मनुष्य में ही पाया जाता है और उसके विवेकपूर्ण आचरण से सम्बन्धित है। सामान्यतया, प्राणीय व्यवहार आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, सुख, दुःख-इन तत्त्वों से प्रेरित होता है। शेष सभी संज्ञाएं प्राणी के वासनात्मक जीवन से सम्बन्धित है, अत: वे उसकी अज्ञानदशा की सूचक भी हैं । शोक का तत्त्व भी प्राणी-व्यवहार को प्रभावित करता है, किन्तु यह तभी सम्भव होता है, जब व्यक्ति के या प्राणी के जीवन में इष्ट का वियोग और अनिष्ट का संयोग होता है। इसी प्रकार-भय का तत्त्व भी इष्ट के वियोग या अनिष्ट के संयोग की आशंका या जीवन के संकट की आशंका से उत्पन्न होता है। ये दोनों चेतनात्मक होते हैं, फिर भी इनमें विवेक का तत्त्व अनुपस्थित रहता
मानव-जीवन की ही यह विशेषता है कि वह इन वासनात्मक और अज्ञानमूलक अंधप्रवृत्तिरूप व्यवहार के इन प्रेरक तत्त्वों पर विवेक या धर्म (संयम) का अंकुश लगा सकता है। अपने व्यवहार को सुनियोजित, संतुलित
और सम्यक् बनाना-यही मानवीय जीवन की विशेषता है। धर्म वह तत्त्व है, जो वासना पर विवेक का अंकुश लगाता है और उससे प्रेरित व्यवहार को एक सम्यक् दिशा सुझाता है। सामान्यतया, मानवीय व्यवहार के मूल में भी कहीं-न-कहीं वासना का तत्त्व रहा हुआ है। वासना जब अपनी पूर्ति चाहती है, तो वह इच्छा, आकांक्षा या अभिलाषा के रूप में बदल जाती है और हमारे व्यवहार को संचालित करती है, किन्तु मनुष्य जैसे विकसित प्राणी ही इन वासनाओं और उनसे उत्पन्न इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के प्रति सजग हो सकते हैं और अपनी विवेकशीलता के माध्यम से उन्हें सही दिशा में नियोजित कर सकते हैं, जबकि अविकसित प्राणी उन्हें सम्यक् रूप से नियोजित नहीं कर पाते हैं । वे मात्र वासना या क्षुधाजन्य कामना से प्रेरित होकर अंधप्रवृत्ति के द्वारा अपने जीवन को संचालित करते हैं, उनमें क्षुधाजन्य वेदना ही प्रमुख होती है, जो उनके व्यवहार को प्रेरित करती है। संज्ञा में शारीरिक आवश्यकता और मानसिक चेतना- दोनों ही होते हैं। दैहिक आधार पर वह एक क्षुधा है, जो अंधप्रवृत्ति के रूप में कार्य करती है, जबकि मानसिकचेतना के द्वारा वह एक ऐसी आकांक्षा व अभिलाषा बन जाती है, जो हेय एवं उपादेय का विचार करती है और कभी नहीं करती है। निम्न श्रेणी के प्राणियों में संज्ञा एक शारीरिक-आवश्यकता या जैविक-क्षुधा के रूप में ही कार्य करती है। कुछ विकसित प्राणियों में मानसिक चेतना तो है, किन्तु वह भी अंधप्रवृत्ति- रूप
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org