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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
अनुमोदना
जैसे चेतना जीव के जीवत्व का लक्षण है, वैसे ही संज्ञाएँ सभी संसारी जीवों का लक्षण हैं।
आदरणीय साध्वी प्रमुदिताश्रीजी ने अपने शोध-प्रबन्ध में संज्ञा के बहुआयामी अर्थों को बखूबी प्रस्तुत किया है। दो अक्षर के इस शब्द में जीवन का सार दर्शाया है, जिसे जानकर एवं सम्यक् प्रकार से जीकर, जिज्ञासु प्रज्ञावान् हो जाता है और अन्त में वह पाने में सफल हो जाता है, जिसे प्राप्त करने के लिए हमने जीवन लिया है।
इस शोध-ग्रन्थ में, संज्ञा और संज्ञी के वासनात्मक और विवेकात्मक पक्ष का विस्तृत विवरण मिलजाता है किस प्रकार सामान्य जन, ओघ और धर्मसंज्ञा को छोड़कर, बाकी की चौदह संज्ञाओं में लिप्त रहता है | यह शोध-ग्रन्थ एक सौ पचास से अधिक ग्रन्थों एवं पत्रिकाओं का निचोड़ है। साध्वीजी साधुवाद की पात्र हैं।
ऐसे प्रयास ही स्व-पर के कल्याण के निमित्त बनते हैं।
इनकी कलम से ऐसी रचनाएँ सतत् प्रवाहित होती रहें, इन्हीं शुभकामनाओं सहित।
डॉ. ज्ञान जैन, चैन्नई (तमिलनाडु)
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