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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
प्राणी किसी त्रासदी से बचने हेतु अपनी सुरक्षा के लिए प्रयास करते हैं। हम प्रत्यक्ष रूप से देखते हैं कि वनस्पतिकाय के जीव (वनस्पति - जगत्) भी अपनी सुरक्षा के लिए नुकीले काँटों को उत्पन्न करते हैं, जैसे - गुलाब, बबूल, नींबू आदि के पौधे अपनी सुरक्षा काँटों से करते हैं। वहीं विकलेन्द्रिय (बेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चउरिन्द्रिय) जीव अपनी सुरक्षा पलायन करके या डंक मारकर करते हैं। गाय, बैल, हिरण आदि पशु सींग के द्वारा अपनी सुरक्षा करते हैं। हाथी अपनी विशाल काया और सूंड से तथा कुछ पक्षी विशेष प्रकार की आवाज निकालकर अपनी सुरक्षा करते हैं। इसी प्रकार, सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ माना जाने वाला मनुष्य अपनी सुरक्षा अस्त्र-शस्त्रों के माध्यम से करता है । अस्त्र- अर्थात् फेंककर चलाये जाने वाले हथियार, जैसे- भाला, तीर आदि और शस्त्र- अर्थात् लोहा, इस्पात से बनाए गए औजार, अर्थात् तलवार आदि, जो शत्रु का घात करते हैं, यानी जो हाथों के द्वारा चलाए जाते हैं, वे शस्त्र कहे जाते हैं, जैसे- बंदूक, बम आदि ।
आचारांगसूत्र में शस्त्र दो प्रकार के बतलाए गए हैं द्रव्य - शस्त्र और भाव - शस्त्र । पाषाण युग से अणु-युग तक जितने भी अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण हुआ है, वे सब द्रव्य - शस्त्र हैं। दूसरे शब्दों में, स्वतः निष्क्रिय शस्त्र द्रव्य - शस्त्र हैं । उनमें स्वतः प्रेरित संहारक - शक्ति नहीं होती है। सक्रिय-शस्त्र, जिसे आचारांगसूत्र में भाव-शस्त्र कहा गया है, वह असंयम है। विध्वंस का मूल असंयम ही है। असंयम के कारण ही निष्क्रिय शस्त्रों का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार, मानसिक स्तर पर रहे हुए भय के कारण ही अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण एवं उपयोग होता है।
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संयुक्तराष्ट्र संघ द्वारा की गई घोषणा के अनुसार भी - "युद्ध पहले मनुष्य के मस्तिष्क में लड़ा जाता है, फिर समरांगण में 209, - मानव - मस्तिष्क में उपजा भय या असुरक्षा का भाव तथा शत्रु के विनाश की वृत्ति ही भाव - शस्त्र है। भारतीय - मनोविज्ञान में भय - संवेग को ही हिंसा या युद्ध का कारण माना गया है। संवेगों की इसी विशेषता के कारण ही मनोवैज्ञानिक संवेगों को एक विध्वंसात्मक - शक्ति के रूप में स्वीकार करते हैं। मानव भोग के पदार्थों की आसक्ति के कारण अपनी आवश्यकताओं से विलासिताओं की ओर बढ़ने लगता है, तो हिंसा उसके लिए आवश्यक हो
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असायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खं । " आचारांगसूत्र -1/4/2
आचारांगसूत्र 1, शस्त्रपरिज्ञा
विश्व शांति एवं अहिंसा प्रशिक्षण, पृ. 210
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