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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
शरण में रहने पर कोई भय नहीं होगा । अर्हत् और सिद्ध परमात्मा अभय को देने वाले हैं, अतः जो अभय की साधना करना चाहता है, उसे - द्वेष से रहित, कषायों से रहित और आसक्ति से रहित होकर जीवन में व्याप्त संपूर्ण भ्रमणाएं, जो भय को देने वाली हैं, उन्हें पुरुषार्थपूर्वक हटाने का प्रयास करना है।
राग
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श्रीमद्राजचंद्रजी ने भी कहा है - "निःशंकता से निर्भयता उत्पन्न होती है और उसी से निःसंगता प्राप्त होती है। 206 सही अर्थों में भय मुक्ति का यही मार्ग है।
वैश्विक5- अस्त्र-शस्त्र की दौड़ का कारण भय
यद्यपि भयसंज्ञा एक मनोभाव या मनोविकृति है, किन्तु उसके कारण आज सम्पूर्ण विश्व संकटपूर्ण स्थिति से गुजर रहा है । वर्त्तमान स्थिति को देखें, तो भयसंज्ञा एक विकट रूप लिए हुए है। विश्व का प्रत्येक देश जितना प्रयास एवं अर्थ-व्यय मानव-कल्याण के लिए नहीं करता है, उतना वह सुरक्षा के लिए करता है, क्योंकि उसे अन्य शक्तिशाली देशों के आक्रमण का भय सतत बना रहता है। आज राष्ट्रों में पारस्परिक - अविश्वास के कारण अस्त्र-शस्त्रों की अंधी दौड़ ने मानव को भयभीत बना दिया है । वर्त्तमान युग में वे राष्ट्र मानवीय कल्याण की बात छोड़कर अपने राष्ट्र की सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं। इन सबका कारण अन्तर में निहित भय ही है। भय के कारण प्रत्येक राष्ट्र अपने-आपको असुरक्षित समझता है और सुरक्षा के साधनों को जुटाने में निरन्तर लगा रहता है। आज मनुष्य शरीर की सुरक्षा, सम्पत्ति की सुरक्षा, पत्नी एवं बच्चों की सुरक्षा, स्वजनों की सुरक्षा, शहर की सुरक्षा और देश की सुरक्षा के लिए चिन्तातुर दिखाई देता है ।
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यद्यपि सुरक्षा की भावना सभी जीवों में होती है। सुख सभी को अच्छा लगता है और दुःख और तद्जन्य असुरक्षा किसी को पसंद नहीं आती है। कहा है- " तुम्हारी ही तरह विश्व के समस्त प्राणियों को दुःख अशान्तिकारक है और वही महाभय का कारण है,207 इसलिए विश्व के सभी
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श्रीमद्रराजचंद्र (मूल गुजराती का हिन्दी अनुवाद), पत्र क्रमांक - 254, पृ. 291
"हं भो पवाइया ! किं भं सायं दुक्खं असायं ? सभिया पडिवण्णं या विएवं भूया । " "सव्वेसि पाणाणं, सव्वेसि भूयाणं,
सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं
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