SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 147 नहीं चढ़ता। जहर भी विशेष स्थिति में चढ़ता है। यह प्रत्यक्ष देखने में आता है कि जब सांप काट जाता है, तो सभी की कोशिश यही रहती है कि उस व्यक्ति को नींद न आ जाए। उसे जाग्रत रखा जाता है। इस जागरूकता में जहर नहीं चढ़ता। भगवान् महावीर को चण्डकौशिक जैसे सांप ने काटा, पर वे अविचल रहे, उन्हें जहर छ भी नहीं पाया। क्योंकि वे जाग्रत थे, उन्हें चेतना का अनुभव हो चुका था, इसलिए वे निर्भय बन गए थे। चेतना का अनुभव अभय की मुद्रा का अनुभव है, क्योंकि अनेक बार अकारण भय ही व्यक्ति को भयभीत बना देता है। प्रतिक्रमण-सूत्र में ब्रह्मचर्य की बाड़ (रक्षा) के प्रसंग में 'डोकरी और छाछ' का दृष्टान्त आता है। किसी वृद्धा स्त्री ने कुछ दिन पूर्व छाछ पी थी, जब उसे यह बताया गया कि उस छाछ में सांप का जहर था, तो सुनते ही वह (भय के कारण) मृत्यु को प्राप्त हो गई। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि अभय बनने के लिए सदा यह चिन्तन करना चाहिए कि 'मेरा किसी से बैर नहीं है।' जब तक हिंसा, असत्य और संग्रह में आसक्ति है, तब तक मानव भयभीत रहता है। अभय को प्राप्त करने के लिए इनसे आसक्ति मिटाना आवश्यक है। ‘जो प्रमादी होता है, उसको सब प्रकार का भय रहता है। जो अप्रमादी होता है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं रहता। 25 जब अप्रमाद आता है, तब भय समाप्त हो जाता है। अभय वस्तुतः प्रज्ञा से आता है। जब प्रज्ञा जागती है, तो व्यक्ति वर्तमान में जीना स्वीकार कर लेता है। जो प्राप्त है, उसे स्वीकार कर लेना, घटना को घटना के रूप में स्वीकार कर लेना ही जीवन की वास्तविकता है। एक बार एक किसान से किसी ने पूछा ‘क्या इस बार मूंग बोया है?'. किसान ने जवाब दिया -"नहीं, मुझे भय था कि शायद बारिश नहीं होगी। फिर उस व्यक्ति ने पूछा -"क्या तुमने मक्का बोया?" किसान बोला -"नहीं, मुझे भय है कि कीड़े-मकोड़े न खा जाएं।” फिर उस आदमी ने पूछा -"तुमने बोया क्या है?" किसान ने कहा -"कुछ भी नहीं, मैंने कोई खतरा या रिस्क (Risk) उठाई ही नहीं।" यह निष्क्रियता भय का परिणाम है। अभय की अवस्था को प्राप्त करने के लिए थोड़ा पुरुषार्थ और थोड़ा विश्वास जरूरी है। भक्तामर स्तोत्र के अन्तिम भाग में आचार्य मानतुंग ने कहा है -यदि भयमुक्त बनना है, तो प्रभु के चरणों की शरण लो। प्रभु की 205 सव्वओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अपमत्तस्स नत्थि भयं - आचारांगसूत्र 1/3/4 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy