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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व वहीं समाप्त हो जाएगी । यह अनुप्रेक्षा का सिद्धान्त उस प्रतिपक्ष का सिद्धान्त है कि एक तरंग के द्वारा दूसरी तरंग की शक्ति को निरस्त किया जा सकता है। शुभ एवं श्रेयस्कर तरंग को उठाया जा सकता है तथा बुरी तरंग को निरस्त किया जा सकता है, या बुरी तरंग को पैदा किया जा सकता है और अच्छी तरंग को निरस्त किया जा सकता है । यह सब हमारे पुरुषार्थ पर, हमारी ग्रहण - शक्ति पर और हमारी दृष्टि पर निर्भर करता है । अनुप्रेक्षा के द्वारा जागरूकता आ जाती है और जब भी मन में भय का विकल्प उठे, तो तत्काल शुभ भावों की जाग्रति के द्वारा हम अभय को प्राप्त कर सकते हैं । 2. प्रेक्षा अभय का दूसरा साधन है - प्रेक्षा । जैसे-जैसे देखने की शक्ति का विकास होता है, हमारी दृष्टि सत्यग्राही बन जाती है। डर जितना भी लगता है, वह असत्य (कल्पना) के कारण लगता है। असत्य मान्यता, सिद्धांत, धारणा, संकल्प . जो भी असत्य का पक्ष है, वह सारा भय पैदा करने वाला है। जैसे-जैसे दर्शन की शक्ति विकसित होती है और सच्चाई के निकट जाते हैं, कल्पनाओं से दूर हटते हैं, हमारी शक्ति बढ़ती जाती है और भय अपने-आप कम होता जाता है । यथार्थ में भय नहीं होता । भय मूर्च्छा और असत्य में होता है । प्रेक्षा के द्वारा हमारी मूर्च्छा का चक्र टूटता है। जब मूर्च्छा का चक्र टूटता है, तो भय अपने-आप समाप्त हो जाता है । 3. मन्त्रों का जाप 145 - Jain Education International - जैन - परम्परा, वैदिक - परम्परा, बौद्ध - परम्परा सबमें भय का निवारण करने के लिए प्रभावशाली मन्त्रों का प्रयोग किया जाता है । कुछ लोग सर्प से डरते हैं, कुछ रात्रि में डरावने स्वप्न देखते हैं, तो डर जाते हैं, कुछ लोग सोते-सोते ही डर जाते हैं और कुछ अकारण ही डर जाते हैं । इन अवस्थाओं से बचने के लिए सैकड़ों 'अभय मन्त्रों का विकास हुआ है और उनका प्रयोग भी बहुत होता है । भक्तामर और कल्याण मंदिर स्तोत्र में सभी प्रकार के भय के निवारण के लिए मंत्र विद्यमान हैं । यथा 'ॐ ही श्रीं क्रीं क्लीं इवीरः रः हं हः नमः स्वाहा' मंत्र । डॉ. सागरमलजी जैन द्वारा लिखित पुस्तक 'जैनधर्म और तान्त्रिक साधना में भी भक्तामर स्तोत्र की नौवीं गाथा में उल्लेखित सात भय - निवारण मंत्रों का वर्णन प्राप्त होता For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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