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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
है, क्योंकि उसकी ममत्ववृत्ति संगृहीत पदार्थों में है। 'पर' में 'स्व' के आरोपण से आदमी रात और दिन भय से आक्रान्त रहता है। उसे निरन्तर यह भय सताता रहता है कि कहीं मुनीम, पार्टनर, नौकर, कर्मचारी, भाई कोई धोखा न दे दे, उसकी मेरी सम्पत्ति को न ले ले। यह परिग्रह की वृत्ति उसे अभय बनाने में बाधक बनती है, क्योंकि जब तक वह ममत्वबुद्धिजन्य मिथ्या भय का परित्याग नहीं करता है, वह निर्भय नहीं हो सकता है। 200 अभय की प्राप्ति के लिए 'पर' में 'स्व' का, अर्थात् अपनेपन का त्याग आवश्यक है। इसी से अभय का विकास होगा। ''
इस प्रकार, वह भय, जो मूलतः एक मनोकल्पना और ममत्वजन्य है, को जीतकर व्यक्ति अभय बन सकता हैं। पाँचों ही महाव्रतों के मूल में भयसंज्ञा से मुक्ति का प्रयास ही है। वस्तुतः, जो अभय को उपलब्ध है, वही नाथ है। जो भयभीत है, वही गुलाम है, दास है। अहँत् एवं सिद्ध परमात्मा स्वयं अभय को उपलब्ध हैं और हमें भी अभय बनने की प्रेरणा दे रहे हैं, इसीलिए सूत्रकृतांग में कहा गया है कि दानों में सर्वश्रेष्ठ दान अभयदान है (दाणाण सेट्ठ अभयपयाण)। यह अभयदान उनकी आत्मज्ञानमयी वाणी द्वारा हमें प्राप्त होता है। परमात्मा की वाणी ही 'अभयदानी' है। वस्तुतः, पंच महाव्रत के माध्यम से हम अभय को प्राप्त कर सकते हैं, साथ ही - (1) अनुप्रेक्षा, (2) प्रेक्षा, (3) मंत्रों का जाप (4) चारित्र के विकास और (5) चेतना की सजगता के द्वारा हम अभय की साधना कर सकते हैं।
इसके लिए तीन साधन अपेक्षित हैं – लक्ष्यनिष्ठा, मार्ग और साधन (उपाय)। अभय का विकास लक्ष्यनिष्ठा, मार्ग और साधन के बिना संभव नहीं। खोज करना होगी मार्ग की और साधन (उपाय) की। उसमें एक उपाय है - अनुप्रेक्षा।
1. अनुप्रेक्षा -
अनुप्रेक्षा द्वारा अभय की भावधारा को विकसित किया जा सकता है। शब्द की प्रणालियां हमारे शरीर के भीतर बनी हुई हैं, जिनके माध्यम से तरंगें हमारे पूरे शरीर में व्याप्त हो जाती हैं और वे हमें प्रभावित करती हैं। यह तरंग का सिद्धान्त है- भय की तरंग उठी और भय के कंपन शुरू हो गए। यदि उस समय अभय की तरंग को उठा सकें, तो भय की तरंग
200 "जे ममाइयमइं जहाइ, से जहाइ ममाइयं" - आचारांगसूत्र- 1/2/6
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