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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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विचिकित्सा -
विचिकित्सा शब्द का अर्थ होता है- आलोचक-दृष्टि। जहाँ भय है, वहाँ कपट है, माया अर्थात् प्रदर्शन है, दिखावा है, कथनी-करनी में भिन्नता है। जो आदमी बार-बार साहसी होने का प्रयास करता है, वास्तव में वह आदमी बहुत डरा हुआ है। एक डरपोक अपने-आपको बहादुर बताने का प्रयास करता है, निडर नहीं। यह एक मनोवैज्ञानिक-सत्य है कि आदमी जैसा होता है, स्वयं को उससे उल्टा प्रदर्शित करता है। एक ईमानदार व्यक्ति के मन में जरा भी यह ख्याल नहीं आता है कि मैं जाऊँ और लोगों को कहूँ कि मैं ईमानदार, शरीफ आदमी हूँ, किन्तु एक बेईमान आदमी दिन में पचासों बार यह कहता रहता है कि मैं ईमानदार आदमी हूँ, जुबान का पक्का हूँ। झूठा आदमी बात-बात में भगवान् की कसम खाता रहेगा। यह सारा व्यवहार, आदमी के दोगलेपन को उजागर करता है, जो उसके भीतर के भय का ही परिणाम है। एक अभय को उपलब्ध आदमी न तो प्रदर्शन करेगा, न ही झूठी प्रतिष्ठा पाने की लालसा रखेगा। प्रतिष्ठा की कामना से किया गया हर व्यवहार स्वयं में निहित शंका, आकांक्षा व विचिकित्सा का होना प्रमाणित करता है। विचिकित्सा झूठी प्रतिष्ठा की कामना है एवं इसकी परिणति माया है, कपट है।
पर के प्रति आकर्षण
पर के प्रति आकर्षण, अर्थात अपने से अन्य के प्रति आकर्षण। दूसरों के प्रति आकर्षण यह बतलाता है कि हम स्वयं से डरे हुए हैं, क्योंकि जो स्वसत्ता की गरिमा से वंचित है, वही दूसरों को निहारता है, दूसरे को पाना चाहता है। कहते हैं, पराई थाली में घी ज्यादा उसी को दिखाई देता है, जिसे स्वयं की थाली की गहराई का ज्ञान न हो। अगर आदमी में प्रतिष्ठा की कामना न रहे, तो उसमें किसी भी प्रकार के नाम का, पद का, अधिकार का, आकर्षण ही नहीं रहेगा। यहाँ तक कि सुंदर-सुंदर परिधानों का आकर्षण भी यह सूचित करता है कि हम सब अपनी कुरूपता से भयभीत हैं और अपने वास्तविक सौन्दर्य से अपरिचित हैं, अतः अन्य के प्रति आकर्षण और दिखावा भी भय के कारण ही होता है। अत्यन्त गहराई से देखें, तो अपने नाम, मकान, दुकान, पैसा, सम्पत्ति, धन आदि के प्रदर्शन के पीछे भी भय की ही भूमिका है। हम स्वयं की परिपूर्णता को नहीं जानते, अतः पर पदार्थों से अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए प्रदर्शन करते हैं। यह डर है कि मेरा होना कैसे व्यक्त हो,
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