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________________ 134 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व आदमी को अपने निहित स्वार्थों में कोई बाधा प्रतीत होती है। जब भी किसी के प्रति संदेह हमारे मन में पैदा होता है, तो उसके पीछे स्वयं के हितों की रक्षा की भावना ही मुख्यतः काम करती है। यह शंका एक असम्यक सोच का परिणाम है। 18 वीं शताब्दी के अवधूत योगीराज श्री आनंदघनजी कृत श्री संभवनाथ स्तवनावली में कहा है – भय चंचलता हो जे परिणामनी रे..... | विचारों की चचलता को भय कहते हैं। परिणाम कहो, अध्यवसाय कहो, मनोभाव कहो अथवा विचार कहो, एक ही हैं। जब ये चंचल बनते हैं, तो भय के भूत नाचने लगते हैं। भय का प्रारंभ शंका से होता है और मन चंचल बन जाता है। आकांक्षा आकांक्षा, अर्थात् चाह, कामना, सुविधाओं या स्वहित की पूर्ति की चाह। ये सारे आवेग भय के कारण भी होते हैं। अगर कोई भय न हो, तो व्यक्ति महत्त्वाकांक्षी भी नहीं होगा। सारी आकांक्षाएँ आदमी की भय-वृत्ति का प्रतिबिम्ब हैं। हमें मरने का भय है, इसीलिए जीने की आकांक्षा है, असुविधा का भय है, तो सुविधा की आकांक्षा है, असुरक्षा का भय है, तो सुरक्षा की आकांक्षा है, अपयश का भय है, तो यश की आकांक्षा है, असफलता का डर है, तो सफलता की कामना है। वस्तुतः, हर प्रकार की चाह, तृष्णा, कामना 'भय' का ही परिणाम है। जिसे अभय उपलब्ध है, वह सर्व कामनाओं से रहित है। जिसे जितनी ज्यादा प्राप्ति की लालसा है, उसे उतना ही ज्यादा भय है। यही कारण है कि एक गरीब से एक अमीर ज्यादा भयभीत है। एक साधारण आदमी बिना अंगरक्षक (Body Guard) के रहता है, किन्तु राजा या नेता नहीं, क्योंकि उसकी कामनाओं का संसार ज्यादा है, प्राप्ति की लालसा ज्यादा है। यह आकांक्षा जीवन- पर्यन्त योजनाओं का निर्माण कराती रहती है और ये तरह-तरह की योजनाएँ आदमी को निरंतर अशांत, बैचेन और तनावग्रस्त बनाए रखती हैं। कांक्षा भय से उत्पन्न होती है और कांक्षा-पूर्ति के साधनों का संचय सुरक्षा की मांग करता है तथा सुरक्षा की कामना पुनः भय उत्पन्न करती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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