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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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वस्तु से डरते हुए देखकर डरने लगते हैं। कुछ बच्चों में फोबिया तब विकसित होता है, जब डर की प्रतिक्रिया की अतिशयोक्ति हो जाती है।
डर दिमाग की उपज है, लेकिन इसका असर मन और शरीर -दोनों को प्रभावित करता है। कभी-कभी यह संवेदना इतनी प्रभावशाली होती है कि व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाती है और अस्तित्व के लिए ही खतरा बन जाती है। मन में कहीं यह एहसास मजबूत होने लगता है कि यह डर आपके साथ ही खत्म होगा, परन्तु भारतीय-मनोवैज्ञानिक और डॉ. हॉवर्ड लाइबगोल्ड ने यह स्वीकार किया है कि डर का इलाज संभव है। उन्होंने दस हजार लोगों को भयानक डरों से मुक्ति दिलवाई है। चाहे वह लोगों के बीच बोलने का डर हो, या ऊँचाई का डर, एलिवेटर का डर हो, या तितलियों का डर, सांप का डर या डॉक्टर के पास जाने का डर। डॉ. फीयर लोगों को अपने डर का सामना करने और उससे निजात दिलवाने के लिए वर्कशाप आयोजित करते हैं। वे कहते हैं कि सभी फोबिया सामान्य चिंताओं और डर की झूठी अतिरंजना हैं। डर सार्वभौमिक है और स्वीकारोक्ति में ही इसका इलाज छिपा है। जब आप खुद को डर की थोड़ी खुराक देते हैं और आपको कुछ नहीं होता, तो आप इस बात में यकीन करने लगते हैं कि आखिरकार यह आपको नहीं मार सकता। यह विश्वास आते ही डर (फोबिया) धीरे-धीरे चला जाएगा। इस प्रकार हम फोबिया से बच सकते हैं।
जैन-मनोविज्ञान में शंका, आकांक्षा, विचिकित्सा- ये सब भय के ही रूप माने जाते हैं।
शंका
जहाँ भय होगा, वहाँ शंका (Doubt) अवश्य होगी। जो डरता है, वह सदा संवेदनशील बना रहता है। शंका सदैव फल के प्रति संदेहरूप होती है। प्रत्येक मनुष्य अपने कर्मों के फल के प्रति शंकाग्रस्त रहता है कि कल क्या होगा? बहुत संघर्ष, मेहनत एवं पराक्रम द्वारा धन, वैभव और उच्च स्थिति को प्राप्त किया है। हम डरते हैं कि कल यह सब चला जाए, तो क्या करेंगे? इस प्रकार की शंका सदा बनी रहती है कि मेरी सुरक्षा को कोई खतरा तो नहीं है? मेरा जीवन सुरक्षित रहे- इसी भयग्रस्त वृत्ति के कारण संसार में निरंतर हिंसा, संघर्ष, प्रतिस्पर्धा बनी रहती है। आपसी रिश्तेदारों में पारस्परिक सम्बन्धों में तब-तब संदेह पैदा होता है, जब-जब
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