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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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को प्रतिष्ठित देखना चाहता है और इस प्रतिष्ठा और आदर-सत्कार में कहीं कोई कमी न आए, यह चाह ही उसे इस भय से ग्रस्त करती है। आदमी सदा अपयश से डरता है। वह सदा यह चाहता है कि उसकी साख बनी रहे, उसकी मान-प्रतिष्ठा बनी रहे, उसका यश खंडित न हो। वह अपने यश को बनाए रखने के लिए झूठे मानदण्डों को भी अपनाता है, कष्ट भी सहता है और अनेक कठिनाइयों का सामना करता है। इस भय से प्रताड़ित व्यक्ति कभी-कभी बहुत अनर्थकारी कार्य भी कर बैठता है।
7. मरण-भय -
आदमी बीमारी से नहीं मरता, आदमी मरता है -मृत्यु के भय से। किसी को कह दिया जाए कि उसके शरीर में कैंसर का रोग है, यह सुनकर ही वह हताश हो मरण की ओर अग्रसर होने लगेगा। आदमी मृत्यु के डर से ही मरता है, मृत्यु से नहीं। यही भय मरण-भय के नाम से जाना जाता है।
एक वृद्ध भोले आदमी ने रात को सोते समय दाँतों को एक कटोरे में रख दिया। एक बच्चा वहाँ आया और दाँतों को खिलौना समझकर ले गया। वह आदमी सुबह उठा, और उसने अपने पास में रखे दाँतों को ढूंढूंढा, लेकिन वे नहीं मिले। उसके मन में कल्पना जागी –'हो सकता है रात को नींद में मैं दाँतों को निगल गया होऊँगा।' तत्काल उसके पेट में असह्य पीड़ा होने लगी। वह पीड़ा से छटपटाने लगा। घर वाले आए, डॉक्टर को बुलाया गया। डॉक्टर ने कहा -"ऑपरेशन होगा।' कल्पना ही कल्पना में सारी स्थिति बिगड़ गई। पेट में असह्य पीड़ा हो रही थी, वह यथार्थ तो थी, परन्तु थी कल्पनाजनित। कुछ देर बाद वही बच्चा हाथ में दाँतों की जोड़ी लिए आ पहुँचा। दाँतों को देखते ही उस आदमी का दर्द गायब हो गया और वह स्वस्थ हो गया। घरवाले देखते ही रह गए।
__ऐसा हमारे जीवन में प्रत्यक्ष अनुभव होता है कि रोग मारता नहीं, रोग का भय मारता है।
आधुनिक मनोविज्ञान में भय की अवधारणा -
आधुनिक मनोविज्ञान में वाटसन (Watson,1920} के अनुसार भय संवेग के विकास में अनुबंध (Conditioning} का विशेष हाथ होता
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