________________
126
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
छीन लेगी' -यह जानते हुए भी आदमी मृत्युपर्यंत इस आदान-भय से भयभीत ही बना रहता है और माया का सेवन करता है, स्वयं की सम्पत्ति को छुपाने का प्रयास करता है। चोरी ना हो जाए, कुछ चला न जाए, इस हेतु सतत जागरूक रहता है।
4. अकस्मात्-भय -
अकस्मात् अर्थात् अचानक कुछ घटित हो जाने का भय, जिसके संबंध में पूर्व से जानकारी नहीं होती है, जैसे- अचानक विद्युत्पात, आँधी, बाढ़, आग, अपघात या दुर्घटना आदि का भय अकस्मात्-भय है। इस भय से ग्रसित मनुष्य के परिग्रह एवं लोभ का विस्तार होता है। अचानक आने वाली आपदाओं का निपटारा करने के लिए आदमी पूर्व-नियोजन करता है। रिश्तों-नातों एवं संबंधों का विस्तार, बीमा कम्पनियाँ, बैंक-सुविधा आदि कई साधनों की व्यवस्था करना अकस्मात्-भय की ही देन है।
5. आजीविका भय -
जीवन-यापन के साधन-रूप रोटी, कपड़ा और मकान के नहीं मिलने का भय आजीविका भय है।
मनुष्य जीवन जीने के लिए साधनों को एकत्रित करता है। हर साधन, जैसे- रोटी, कपड़ा, मकान की कीमत चुकाना पड़ती है। मनुष्य उस कीमत को उपार्जित करने के लिए श्रम करता है, कड़ी मेहनत करता है, खून-पसीना एक करता है, तब कहीं जाकर वह जीवन जीने के लिए धन एकत्रित कर पाता है। प्रतिस्पर्धा के इस युग में आजीविका का भय हर साधारण मनुष्य को रहता है। प्रत्येक मनुष्य सुख-सुविधा के लिए अधिकाधिक कमाना चाहता है। साधन सीमित हैं और इच्छाएँ असीम हैं, अतः इच्छाओं की पूर्ति के लिए और जीवन यापन के लिए धन के संचय करने का जो भय बना रहता है, वह आजीविका भय है।
6. अपयश-भय
जगत्, समाज, परिवार आदि में अपयश होने या निंदित होने के भय को अपयश-भय कहते हैं। आजीविका के प्रश्न का समाधान होते ही आदमी यश-प्रतिष्ठा के लिए जीना शुरू कर देता है। प्रत्येक आदमी स्वयं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org