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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
आशीर्वचनम्
संसारी जीवन के जीवत्व को जिससे जाना या पहचाना जाता है, उसे संज्ञा (Instinct) कहते हैं, जो हमारी व्यवहार की प्रेरक भी बनती है। संज्ञाओं से बाधित होकर ही जीव कर्म करता है और कर्म के परिणामस्वरूप ही जीव सांसारिक सुख-दुःख को प्राप्त होता है और इन्हीं के कारण तनावग्रस्त भी बनता है।
साध्वी प्रमदिताजी ने 'जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व संज्ञा की अवधारणा का समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर शोध-कार्य किया है। सम्पूर्ण शोध-कार्य आगम मर्मज्ञ डॉ. सागरमलजी के दुर्लभ सन्निधि में पूर्ण किया।
__ आधुनिक युग को ध्यान में रखते हुए वैज्ञानिक शैली को अपनाकर, जो तुलनात्मक चिन्तन प्रस्तुत किया है, यह प्रयास स्तुत्य एवं अनुमोदनीय है।
परमात्मा की वाणी उनके स्वाध्यायमय जीवन की पर्याय बने, रत्नत्रय आराधना के द्वारा स्वयं के जीवन को प्रकाशित करते हुए जिनशासन की गरिमा में अभिवृद्धि करे, यही शुभाशीष ।
यह शोध-प्रबन्ध जन-जन के जीवन का पथप्रदर्शक और आत्मदर्शन में उपयोगी सिद्ध होगा।
भविष्य में भी इसी तरह श्रुत भक्ति का लाभ प्रमुदिता श्री को मिलता रहे। इसी मंगलाकांक्षा के साथ
श्री अनुभवचरण रज साध्वी विनोदश्री
पाली
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