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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
आशीर्वचनम्
जैनदर्शन में संज्ञा, जिसे शारीरिक आवश्यकताओं एवं मनोभावों की वह मानसिक चेतना माना है, जो आशा, अभिलाषा के रूप में व्यक्त होती है, जो हमारे व्यवहार की प्रेरक बनती है। जीव इस लोक में संज्ञा के कारण ही तनावग्रस्त होता है, सुख-दुःख को प्राप्त करता है। व्यक्ति अपनी विवेक शक्ति से संज्ञाओं का ज्ञान कर एवं उनकीहेय, ज्ञेय एवं उपादेय को जानकर अपनी दुष्प्रवृत्तियों से ऊपर उठ सकता है।
इसी बात को लक्ष्य में रखते हुए मेरी गुरुबहिना साध्वीरत्ना प्रमुदिताश्रीजी ने यथाशक्य इस उपयोगी विषय पर अपना चिन्तन प्रखर किया।
मन अत्यन्त पुलकित हो रहा है कि तुमने 'जैन-दर्शन में संज्ञा की अवधारणा का समीक्षात्मक अध्ययन' विषय पर अपना सफलतम शोधकार्य परिपूर्ण किया | साहित्य एवं जैन-दर्शन के अध्ययन में अपनी उपलब्धि के उच्चतम स्तर को स्पर्श किया।
निःसन्देह यह तुम्हारा अथक प्रयास परमात्मा की असीम कृपादृष्टि एवं पू. गुरुवर्याश्री के आशीर्वाद की ही परिणति है। तुम्हारी इस श्रेष्ठतम सफलता एवं उत्कृष्ट उपलब्धि पर हृदय की गहराइयों से तुम्हें बधाई।
___अपनी परिलक्षित एवं परिष्कृत प्रतिभा का सदुपयोग सदैव तुम अपने जीवन के कल्याण तथा.धर्म एवं समाज के हित में करके जिन शासन की ज्योति को निरन्तर ज्योतिर्मय बनाये रखना, यही मंगलभावना....।
श्री हेम गुरुचरण रज
साध्वी कल्पलता
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