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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
भय के कारण और भय के दुष्परिणाम -
संज्ञाओं के संदर्भ में जो तीन प्रकार के वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं, उन सभी में आहारसंज्ञा के बाद भयसंज्ञा का उल्लेख मिलता है। जैनदर्शन की सामान्यतया यह मान्यता है कि सभी संसारी-जीवों में भयसंज्ञा पाई जाती है, चाहे वे एकेन्द्रिय हों या पंचेन्द्रिय। सामान्यतया, हम बेन्द्रिय प्राणी से लेकर पंचेन्द्रिय मनुष्य तक -सभी में स्पष्ट रूप से भय की उपस्थिति देख सकते हैं, किन्तु जैन-दार्शनिकों की यह मान्यता है कि एकेन्द्रिय जीवों में भी भयसंज्ञा होती है। इसकी विशेष चर्चा हम आगे करेंगे। यहाँ एक उदाहरण से इसे स्पष्ट कर देते हैं। भारत में छुईमुई जाति का पौधा पाया जाता है, यदि उस पौधे के पास से कोई निकलता है, तो उसकी पत्तियाँ सिकुड़ जाती हैं। यह इस बात का सूचक है कि वह पौधा अन्य की उपस्थिति में भय का अनुभव करता है। दक्षिण अफ्रीका में अनेक ऐसे पौधे पाए गए हैं, जिनमें भय और आक्रामकता के संवेग देखे जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि अर्हत् और सिद्धों को छोड़कर शेष सभी संसारी-जीवों में भयसंज्ञा का अनुभव किया जाता है। भय संज्ञा की पुष्टि इस बात से भी होती है कि भय प्राणी के व्यवहार को प्रभावित करता है। हमने पूर्व में संज्ञा की परिभाषा करते हुए बताया था कि संज्ञाएं व्यवहार की संप्रेरक हैं। भय भी व्यवहार का संप्रेरक या उद्दीपक है, किन्तु भय क्यों उत्पन्न होता है और भय की स्थिति में प्राणी क्या प्रतिक्रिया करता है - इन दोनों बातों को जान लेना आवश्यक है। आगे, हम भय के कारणों और दुष्परिणामों की चर्चा करेंगे।
भय के कारण
मोहनीय-कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला आवेग भय है। संज्ञाओं या व्यवहार के प्रेरक उद्दीपकों में भय का भी प्रमुख स्थान है। स्थानांगसूत्र के अनुसार भय की उत्पत्ति के चार निम्न कारण हैं -
1. सत्त्वहीनता, अर्थात् किसी प्रकार अवसाद से। 2. भयमोहनीय-कर्म के उदय से। 3 भयोत्पादक वचनों को सुनकर ।
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