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________________ 110 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व भयसंज्ञा का कारण बताया है। 64 भयसंज्ञा के उदय से भयभीत प्राणी के नेत्र तथा मुख में विकारोत्पत्ति, शरीर में रोमांच, कम्पन, घबराहट आदि मनोवृत्तिरूप क्रियाएं होती हैं।15 मनुष्य में भयसंज्ञा सबसे कम होती है तथा नारकियों में सबसे अधिक होती है, क्योंकि उनमें लगातार मृत्यु का भय बना रहता है। प्रायः, प्रत्येक प्राणी को किसी-न-किसी के भय से संत्रस्त देखा जाता है। चाहे वे मनुष्य हों या देव, तिर्यंच हों या नारकी के जीव, अल्प या अधिक, भय तो सभी में होता है। यह भय होता क्या है ? इसके लक्षण क्या हैं ? भय मनुष्य के एक विचार से ज्यादा कुछ नहीं है। यह दिमाग में उठने वाली एक तरंग है। यह कोई वस्तु नहीं, अपितु मनःस्थिति है, जो प्राणी द्वारा ही निर्मित होती है। भय वास्तव में एक अंधेरी राह है, जहां केवल नकारात्मक भाव ही पैदा होते हैं, पलते हैं और पनपते हैं, जैसे - अगर इस राह पर कदम बढ़ा लिया, तो पुनः लौटना और पार होना - दोनों ही मुश्किल हैं। व्यक्ति एक भय से ही दूसरे भय को जन्म देता है। प्रारम्भ में भय छोटे रूप में होता है, फिर यह बड़ा मानसिक रोग भी बन जाता है। भय अतीत की यादों से, या भविष्य की आकांक्षाओं से पैदा होता है। कहा जाता है कि एक भयभीत व्यक्ति कभी मोक्ष नहीं पा सकता, क्योंकि जो भय को जीत लेता है, वही मोक्षगामी हो सकता है। यह प्रत्यक्ष सुनने में आता है कि मृत्यु का भय सबसे बड़ा है। मौत से भय लगता है, किन्तु यह चिन्तन का विषय है कि भला मौत से भय क्यों लगता है? क्या वास्तव में हमारा कभी मौत से साक्षात्कार हुआ है? दूसरे को मृत्यु से मरता हुआ देखकर हमें अपनी मृत्यु की कल्पना से भय लगता है। केवल बार-बार सुनकर हमने मान्यता के रूप में यह स्वीकार कर लिया है कि हमें भी मरना है। यह कल्पना व्यक्ति को मृत्यु से भयभीत बनाती है। जैन-दार्शनिकों ने अपनी मान्यता के फलस्वरूप यह बताया है कि हमें मृत्यु से भय इसलिए लगता है, क्योंकि यह हमारे पूर्वजन्मों का संस्कार है। जिस-जिसको हमने अपना प्रिय माना था, वे हमें छोड़कर चले 164 आचारांगनियुक्ति टीका, गाथा-36 10 प्रज्ञापनासूत्र - 8/725 वही, 8/5/9 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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