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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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रहता है, साथ ही उन्हें यह भी भय रहता है कि कोई उनकी गलती न देख ले, या किसी को उनकी कमजोरियों का पता न चले। प्रायः, ज्यादातर व्यक्ति पूर्व प्रदत्त संस्कारों, मान्यताओं के वशीभूत होकर पाप करने से भी डरते हैं।
अधिकांश भय कल्पनाजनित होता है, जैसे- मार्ग में खड़ी गाय पांच-सात लोगों को अपनी ओर आते देख भयभीत हो जाती है, कारण गाय को यह सन्देह होता है कि कहीं वे मुझ पर आक्रमण करने तो नहीं आ रहे हैं। कई व्यक्ति, तरूण-वय सदैव बनी रहे, इसके लिए शक्तिवर्द्धक औषधियों, टॉनिक आदि का प्रयोग करते हैं। यह भी वे भय के कारण ही करते हैं। वृद्धावस्था छुपाने के भय से व्यक्ति बालों को काला करता है, शरीर की झुर्रियों के निवारण के लिए. पाउडर, कास्मेटिक्स आदि का प्रयोग करता है, गरीबी के भय से धन कमाने के लिए हिंसक-कार्य करता है। वह अपनी इच्छा, अभिलाषा की पूर्ति नहीं होने पर दुःखी होता है। यही दुःख प्राणियों में भय उत्पन्न करता है और प्रत्येक जीव निरन्तर यह प्रयास करता है कि वह भय को त्याग अभय को कैसे प्राप्त करे ?
भय-संज्ञा का स्वरूप -
भय-संज्ञा- जिसके उदय से उद्वेग उत्पन्न होता है वह भय है। 159 भीतिर्भयम् भीति को भय कहते हैं। 160 अंतरंग में भय–नोकषाय का उदय होने से तथा बहिरंग में अत्यन्त भयंकर वस्तु देखने से और उस ओर ध्यान जाने से शक्तिहीन प्राणी को जो भय उत्पन्न होता है, उसे ही भय-संज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा आठवें गुणस्थान तक होती है। 161 शक्ति की हीनता का अनुभव, भयवेदनीय-कर्म का उदय, भय की बात सुनना और भय के विषय में चिन्तन करना - ये भय संज्ञा के कारण हैं। 162 अत्यन्त भयंकर पदार्थ को देखने से, अथवा पहले देखे हुए भयंकर पदार्थ के स्मरण आदि से, शक्ति के हीन होने पर और भयकर्म के उदय या उदीरणा होने पर भयसंज्ञा होती है। आचारांगनियुक्ति-टीका में मोहनीयकर्म के उदय को
159 यदुदयादुद्वेगस्तद्भयम्। --स.सि.- 8/9/386/1 160 भीतिर्भयम्, धवला -19/1/2 161 तत्त्वार्थसार, 2/36 का भावार्थ, वीरसेवा मंदिर ट्रस्ट, वाराणसी, पृ.46 162 चउहिं. ठाणेहिं आहारसण्णा समुप्पज्जपि, तं जहा ओमकोट्ठताए ।
छुहावेयणिज्जरस कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं।। - ठाणं 4/579
163 गो. जी. 134
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