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________________ 106 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व जो जीवनयात्रा एवं संयमयात्रा के लिए उपयोगी हो सके और जिससे न किसी प्रकार का विभ्रम हो और न धर्म की भंसना। 151 वस्तुतः, आहार भोग का कारण है, तो योग का भी। क्योंकि बिना स्वस्थ शरीर के अणाहारी-पद प्राप्त नहीं किया जा सकता, इसलिए आहार का सहारा लिया जाता है। जिस प्रकार शिखर पर पहुँचने के लिए पगथियों (सीढ़ियों) का सहारा लेते हैं और नदी पार करने के लिए नाव का सहारा लिया जाता है, लेकिन अन्ततोगत्वा यह भी सत्य है कि पगथियों और नाव का आश्रय छोड़ने पर ही शिखर एवं किनारे पर पहुंचा जा सकता है, ठीक उसी प्रकार निराहारी-पद को प्राप्त करने के लिए आहार संज्ञा का त्याग आवश्यक है और वह त्याग हम तप के माध्यम से कर सकते हैं। इच्छाओं का विरोध करना ही तप है। निशीथचूर्णिका में कहा गया है -“तप्यते अणेण पावं कम्ममिति तपो," अर्थात्, जिससे पापकर्म तप्त हो जाएं, वह तप है। आत्मा का स्वभाव अणाहारी है। आहार ग्रहण करना तो शरीर का कार्य है। अणाहारी पद को प्राप्त करने के अभ्यास में आहार-संज्ञा को कम करना ही 'तप' कहलाता है। जैनाचार्यों ने तप के बारह प्रकार माने हैंअनशन, उणोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग आदि छह तप बाह्य-तप कहलाते हैं। निराहारी-पद की प्राप्ति के लिए आहार त्याग साधना का आदर्श रूप है, 152 इसलिए दशाश्रुतस्कन्ध में कहा है -"जो साधक अल्पाहारी है, इन्द्रियों का विजेता है, सभी प्राणियों के प्रति रक्षा की भावना रखता है, उसके दर्शन के लिए देव भी आतुर रहते हैं।" अतः, निराहारी-पद को प्राप्त करना एक उच्च साधना है। इसके लिए अवश्यमेव आहार-संज्ञा को त्यागना होगा। यदि आहार-संज्ञा आंशिक शान्ति है, तो निराहारी-पद पूर्ण शाश्वत शक्ति की अभिव्यक्ति है। आहार जीवन का आदि है, तो अणाहार अन्त ......... | 151 तहाँ भोत्तत्वं जहाँ से जाया माता य भवति, न य भवति विब्भमों, न भंसणा य धम्मस्य ।। - प्रश्नव्याकरणसूत्र 2/4 152 अप्पाहारस्स दंतस्स, देवा दंसेति ताइणों। - दशाश्रुतस्कंध - 5/4 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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