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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
अध्याय-3
भय - संज्ञा (Instinct of Fear)
भय - संज्ञा का स्वरूप एवं लक्षण
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- यह सामान्य
स्थानांगसूत्र 53 में एक प्रसंग आता है कि एकदा प्रभु महावीर ने अपने शिष्य - शिष्याओं से प्रश्न किया - " किं भया पाणा समणाउसो " अर्थात् हे आयुष्यमान श्रमणों ! प्राणियों को किससे भय है ? उत्तर देते हुए प्रभु महावीर स्वयं कहते हैं- "दुक्खं भया", प्राणियों को दुःख से भय है । प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दुःख से डरता है मनोविज्ञान है। निगोद से लेकर मनुष्य एवं देवता तक हर प्राणी में 'भय - संज्ञा' विद्यमान है। जैव-वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिकों, सभी ने यह तथ्य एकमत से स्वीकार किया है कि प्राणी भय से सुरक्षा चाहता है । भय से बचाव के लिए ही सारी व्यवस्थाएँ जुटाता है । भय के कारण ही वह त्र-शस्त्रों का वैज्ञानिक विकास कर पाता है । जब बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है तो वह छोटी मछली भी अपनी सुरक्षा का भाव रखती है । इस प्रकार, स्वयं की सुरक्षा के लिए प्रत्येक जीव कुछ-न-कुछ प्रयास करता है और यह प्रयास ही उस जीव का भविष्य बनता है एवं उसके भावी संसार का निर्माण करता है। प्रत्येक जीव के भाव भिन्न-भिन्न होते हुए भी उनके मूल में एक ही तथ्य है कि वे भय से छुटकारा चाहते हैं और अभय की अवस्था को प्राप्त होना चाहते हैं ।
अस्त्र
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उत्तराध्ययनसूत्र में महर्षि गर्दभाली कहते हैं - " अभय को चाहते हो, तो अभयदाता बनो।
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स्थानांगसूत्र में ही आगे प्रभु स्वयं कहते हैं- " दुक्खे केण कडे? यह दुःख किसने बनाया ? समाधान करते हुए प्रभु कहते हैं - 'सयं कडे
स्थानांगसूत्र - 3 / 2
सव्वे पाणा पिआउया, सुहसाया दुक्खपडिकूला। -आचारांगसूत्र - 1 / 2/3
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अभओ पत्थिवा ! तुमं अभयदाया भवाहि य,
अणिच्चे जीवतोगम्मि किं हिंसाए पसज्जसि ?
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उत्तराध्ययनसूत्र 18/11
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