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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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अज्ञान, अति आहार और गरिष्ठ आहार -ये तीनों ही सूत्र जीवन के शत्रु हैं। जीवन के सौंदर्य को बनाए रखने के लिए, जीवन-शक्ति को बढ़ाने के लिए हितकर और परिमित आहार का सेवन करना चाहिए।150
विश्वविख्यात डॉ. मेडफेडन ने बताया है - "भोजन के अभाव से संसार में जितने लोग भूख से पीड़ित होकर मरते हैं, उससे कहीं अधिक मानव अनावश्यक अतिमात्रा में भोजन करने के कारण रोगग्रस्त होकर मरण को प्राप्त होते हैं।"
दीर्घजीवन को प्राप्त करने का महत्त्वपूर्ण सूत्र -
___ यह सूत्र हल्का, सात्त्विक, सुपाच्य और शाकाहारी भोजन है। हमें भोजन कब और कितनी मात्रा में करना चाहिए ? इसका विवेक मानव ने पूर्ण रूप से खो दिया है, इस कारण सात्त्विक भोजन भी अभक्ष्य बन जाता है। इसकी विवेचना हमने रात्रिभोजन के संबंध में की थी। आज विवेक-शून्य कहे जाने वाले पशु भी भोजन की मात्रा के विषय में विवेक रखते हैं, जैसे - गाय, चिड़ियाँ अन्य पशु पेट भर जाने के बाद भोजन ग्रहण नहीं करते। कुत्ते का पेट भरा हुआ है, मगर कहीं से दूसरी रोटी मिल भी गई, तो वह उसे सूंघकर चला जाता है, पर उसका भक्षण नहीं करता है, सिंह भी पेट की पूर्ति हो जाने पर उसके सामने शिकार होने पर भी उसके भक्षण की इच्छा नहीं करता है, लेकिन रसलोलुपी मानव जिह्वा के स्वाद के वशीभूत होकर खाता ही जाता है।
स्पष्टतः, मनुष्य का स्वयं का अविवेक ही उसके स्वयं के जीवन के लिए खतरा बन रहा है। वर्तमान युग में होटलों और बुफे-पार्टियों का प्रचलन बढ़ रहा है तथा घरों में भी पश्चिमी सभ्यता का बोलबाला होने से भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक संभवतः कम रखा जा रहा है, परन्तु फिर भी हम अपने जीवन में यदि आहार-विवेक और भक्ष्य-अभक्ष्य का विवके पूर्ण रूप से रखें, तो निःसंदेह अपनी जीवनशैली को, शारीरिक-स्वस्थता को, आध्यात्मिक-चिन्तन को बहुत ऊँचाइयों तक पहुंचा सकते हैं, इसलिए प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है – “ऐसा हित-मित भोजन करना चाहिए,
150 पहला सुख : निरोगी काया, चन्दलमल "चांद"
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