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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
तथा अन्य शरीरगत ढांचा फलाहार के आधार पर टिका था और ईसा से बारह लाख वर्ष पहले मानव निस्संदेह शाकाहारी था। मिस्र, सुमेरिया, चीन, भारत तथा रोम एवं ग्रीस में बसी मानव-जातियाँ भी शाकाहारी थीं।149
'शाकाहार' शब्द का शाब्दिक अर्थ करें, तो शा- शान्ति का, काकान्ति का, हा- हार्द (स्नेह) का और र- रक्षा का परिचायक है, अर्थात् शाकाहार हमें शांति, कांति, स्नेह एवं रसों से परिपूर्ण कर हमारी मानवता की रक्षा करता है। कहा है- लम्बी आयु, निरोगी काया, शाकाहार की है ऐसी माया। शाकाहर से ही मनुष्य पूर्ण एवं लम्बी आयु सरलता से पा सकता है। जापान में किए गए अध्ययनों से ज्ञात होता है कि शाकाहारी न केवल स्वस्थ्य एवं निरोग रहते हैं, अपितु दीर्घजीवी भी होते हैं और उनकी बुद्धि भी अपेक्षाकृत कुशाग्र होती है। बाइबिल में लिखा है -तुम यदि शाकाहार करोगे, तो तुम्हें जीवन-ऊर्जा प्राप्त होगी, किन्तु यदि तुम मासाहार करते हो, तो वह मृत आहार तुम्हें भी मृत बना देगा।
सम्पूर्ण सृष्टि में एक भी ऐसा व्यक्ति मिलना कठिन है, जो मात्र मांसाहार पर जीवन यापन करता हो, जबकि ऐसे करोड़ों व्यक्ति हैं, जो जीवनपर्यंत सिर्फ शाकाहार पर स्वाभाविक रूप से जीवन-यापन करते हैं, अर्थात् शाकाहार अपने आप में संपूर्ण संतुलित आहार है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि जैनदर्शन में भक्ष्य-अभक्ष्य की विवेचना का मूल उद्देश्य सात्त्विक और संयमित जीवन से है। व्यक्ति जीवन भर भोजन करता है, किन्तु उसे भोजन के सम्यक् स्वरूप के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी होती है। केवल उदरपूर्ति के लिए जैसा-तैसा, जब चाहे तब, भक्ष्य-अभक्ष्य, दिन-रात का ध्यान रखे बिना खाने वाला व्यक्ति पेट को भारी बनाता है, बीमारियों से दुःखी होता है और असमय ही वृद्ध हो जाता है। भोजन के सम्बन्ध में जैनदर्शन में, भारतीयदर्शन में, अन्य दर्शन में एवं ऋषि-मुनियों, वैद्यों, चिकित्सकों आदि ने बहुत सारी जानकारियाँ दी हैं और हमारी संस्कृति में भी सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही परम्पराएँ भी भोजन के संबंध में वैज्ञानिक और स्वास्थ्य संबंधी आधार लिए हुए हैं। खेद इस बात का है कि पश्चिम की नकल में हम अपने विवेक का उपयोग नहीं करते हुए अन्य बातों की तरह आहार के संबंध में भी केवल अन्धानुकरण करते रहते हैं। "आहार के नियमों का
149 अहिंसा की प्रासंगिकता, डॉ. सागरमल जैन,
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