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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
कारण, उनकी भावना भी क्रूर और उत्तेजनायुक्त हो जाती है। आहार जीवन का साध्य नहीं है, मात्र साधन है। उसकी उपेक्षा तो नहीं की जा सकती है। शरीर - शास्त्र की दृष्टि से आहार शरीर पर ही प्रभाव नहीं डालता, उसका प्रभाव मन पर भी होता है । मन पवित्र रहे, शान्त रहे, इसके लिए आहार का विवेक होना बहुत जरूरी है ।
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जैन - संस्कृति के अनुसार, आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव से पूर्व जब तक कृषि का विकास नहीं हुआ था और यौगलिक सभ्यता थी, उस युग का मानव कल्पवृक्षों से सहज प्राप्त फल आदि खाकर सात्त्विक जीवन जीता था। भगवान् ऋषभदेव ने मनुष्य जाति की बढ़ती हुई जनसंख्या को अपने भोजन आदि की आवश्यकता -- - पूर्ति के लिए खेती करना सिखाया । खेती के लिए उपयोगी पशुपालन, गोपालन आदि की शिक्षा दी और इस प्रकार मानव-सभ्यता में खेती एवं पशुपालन आदि का विकास हुआ। पहले मनुष्य केवल फल व वनस्पति से ही भूख मिटाता था । कृषि एवं गोपालन आदि का विकास होने पर उनके भोजन में तीन प्रकार के पदार्थ सम्मिलित हो गए- 1. वनों में सहज निष्पन्न फल, 2. कृषि द्वारा उत्पन्न किया हुआ अन्न, धान्य, शाक आदि तथा 3. पशुओं से प्राप्त दूध आदि । प्राचीन काल में मानव का भोजन यही स्वाभाविक भोजन था, जिसे हम आज शाकाहार के नाम से जानते हैं ।
समग्र भारतीय-संस्कृति का यह दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य मूलतः शाकाहारी प्राणी है। उसके दाँत, आँतें, जीभ, जिगर आदि की रचना शाकाहार के सर्वथा अनुकूल है और मांसाहारी प्राणियों से बिल्कुल भिन्न है, साथ ही उसकी मानसिक व बौद्धिक - रचना भी शाकाहारी - प्रकृति की है। वैज्ञानिकों ने भी अनेक प्रकार के अनुसंधान करके, पुरातात्त्विक खोजों व मानव जीवन विज्ञान के आधार पर यही निष्कर्ष निकाला है कि प्राचीनतम समय में मनुष्य का भोजन केवल शाकाहार ही था ।
डॉ. सागरमलजी जैन लिखते हैं कि आज से लगभग तीन अरब पचास करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी ग्रह पर जीवन की शुरूआत हुई । जीवधारियों का पूर्वज डायनासौर भीमकाय महाबली जीव जो आज से लगभग दस करोड़ वर्ष पूर्व इस पृथ्वी पर विद्यमान था, वह पूर्णतः तृणभोजी ( शाकाहारी) था। जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के प्रसिद्ध नृतत्व - विज्ञानी डॉ. आलन वावर ने प्राचीनतम जीवाश्मों की खोज करके उनके आकार, रचना आदि के आधार पर यह सिद्ध किया है कि मनुष्य के दाँतों और आँतों की रचना
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