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________________ 100 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व राख से अपने शरीर पर लेप करने का काम करता है।42 जो मानव सब प्राणियों पर दया करता है और मांसभक्षण कभी नही करता है, वह न तो किसी प्राणी से डरता है और न उन्हें डराता है। वह दीर्घायु, निरोगी और सुखी जीवन व्यतीत करता है। 143 जिह्वा के क्षणिक स्वाद के लिए, या अपने पेट की पूर्ति के लिए निरपराध, मूक और अबोध प्राणियों की हत्या करना घोर पाप है, ऐसी हिंसक-वृत्ति के मनुष्यों को स्वप्न में भी सुख, शान्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। जो रस में, स्वाद में, आसक्त होता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त हो जाता है, जैसे - मांस के लोभ में फंसी मछली मच्छीमार के कांटों में फंसकर अपने प्राण गंवा देती है। 44 - आचार्य मनु ने कहा है कि जीवों की हिंसा के बिना मांस उपलब्ध नहीं होता और जीवों का वध कभी स्वर्ग प्रदान नहीं करता, अतः मांस-भक्षण का त्याग अवश्यमेव करना चाहिए।145 . हिंसा से पापकर्म का अनुबंध होता है, इसलिए हिंसक व्यक्ति को स्वर्ग तो कदापि नहीं मिल सकता। उसे या तो इसी जन्म में उसका फल प्राप्त होता है, अथवा अगले जन्म में नरक और तिर्यंचगति के भयंकर कष्ट एवं वेदनाएं सहन करना पड़ती हैं। स्थानांगसूत्र में भी मांसाहार करने वाले जीव को नरकगामी बताया है। 46 संत कबीरदासजी ने भी मांसाहार को अनुचित माना है और मांस का भक्षण करने वाले प्राणियों को नरकगामी कहा है।147 यस्तु प्राणिवधः कृत्वा पितृन्यांसेन तर्पयेत् । सोऽविद्धाग्चंदनं दग्धवा कुर्यादिंगार लेपनम् ।। - वृद्ध पाराशरस्मृति अघृप्य सर्वभूतानाम्, युष्यान्नीरूपजः सुखी। भवत्य भक्ष्यन्मांस, दयावान् प्राणिनामीह।। – महाभारत, अनुशासन पर्व उत्तराध्ययनसूत्र - अध्ययन 32/62 समुत्पत्ति च मांसस्य, बन्धबन्धो च देहिनाम्। प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्व मांसस्य भक्षणात्।। - मनुस्मृति 5/49 न कृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित। न व प्राणिवधः स्वर्गस्तस्मान्मांस विवर्जयेत ।। – मनुस्मृति, 5/48 चउहि ठोणेहि जीवा नेरइयाउयत्ताए. कम्मं पकयेंति, तं जहा। महारंभताए, महापरिग्गहयाए पंचिदियवहेणं, कुणिमाहारेणं ।।-स्थानांगसूत्र - 4/4/628 मांस, मछरिया खात है, सुरापान से हेत। वे नर नरकहि जाएंगे, मात-पिता समेत ।। कबीर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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