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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
'शाक' शब्द संस्कृत की 'शक्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है - योग्य होना, समर्थ होना, सहज होना । शक् धातु 'शक्नोति' आदि रूपों से भी चलती है, अतः उसका एक अर्थ बल, शक्ति, पराक्रम, योग्य होना भी है। इस प्रकार, ‘शाकाहार' का वाच्यार्थ हुआ ऐसा आहार, जो मनुष्य की योग्यताओं का विकास करे और उसे बलशाली तथा पराक्रमी बनाए ।' सामान्यतः, शाकाहार में ये दो शब्द सम्मिलित हैं शाक और आहार । शाक से आशय सागपात, तरकारी फल आदि है और आहार का अभिप्राय रोटी, चावल आदि से है। जिस प्रकार दीर्घ जीवन के लिए शुद्ध जल, शुद्ध वायु आवश्यक है, उसी प्रकार उसके लिए भोजन भी आवश्यक
है।
140 अहिंसा की प्रासंगिकता, डॉ. सागरमल जैन, पृ.64
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इमे वै मानवाः लोके नृशंसा मांस गृद्धिनः ।
विसृज्य विधिमान् भक्ष्यान् महारक्षो गण इव । । अनुशासन पर्व
वस्तुतः, जैनदर्शन में बाईस अभक्ष्य और रात्रिभोजन, मद्य - मांस आदि को त्याज्य बताया है, क्योंकि "मांसाहार का सीधा संबंध क्रूरवृत्ति के साथ जुड़ा हुआ है। मांसाहार और क्रूरता सहगामी हैं । करुणा को समाप्त किए बिना हम मांसाहार के हिमायती नहीं बन सकते। करुणा मानव-जीवन का एक ऐसा आवश्यक तत्त्व है, जिसके अभाव में मनुष्य एक दरिंदा या एक हिंसक - पशु से भी बदतर बन जाता है। मांसाहार के परिणामस्वरूप मनुष्य के जीवन में बर्बरता का विकास होता है। फलतः, संवेदनशीलता और करुणा समाप्त हो जाती है। यदि मानव में संवेदनशीलता और करुणा के तत्त्व को जीवित रखना है, तो हमें मांसाहार का त्याग करना होगा।" 140 संज्ञाएँ मनुष्य की मूलवृत्तियाँ हैं और मांसाहार उन्हें उकसाने का कार्य करता है, अतः शाकाहार और मांसाहार के बीच चुनाव करने से पूर्व मनुष्य को यह निश्चय कर लेना चाहिए कि वह मानव-जाति में सुख, शान्ति, समृद्धि, संवेदनशीलता, समता आदि सद्गुणों को जीवित रखना चाहता है, या फिर हिंसा, तनाव, युद्ध, क्रूरता आदि को अपनी विरासत के रूप में छोड़ना चाहता है । "जो मानव उत्तम शाकाहारी पदार्थों को छोड़कर घृणित मांसाहार का सेवन करता है, वह सचमुच राक्षस की तरह ही है। 141 जो मानव जीवों का वध करके उनके मांस के द्वारा पितरों को तृप्त करता है, वह मूर्ख सुरभित चंदन को जलाकर उसकी
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युधिष्ठिर - भीम संवाद, महाभारत,
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