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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व आहार मनुष्य-जीवन के अस्तित्व के लिए आवश्यक है, किन्तु मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, इसलिए उसे यह सोचना होगा कि वह क्या खाए और क्या नहीं खाए? पशु-जगत् एवं वनस्पति-जगत् का आहार उसकी अपनी शारीरिक संरचना के आधार पर प्राकृतिक रूप से ही निर्धारित होता है, अतः उनके लिए यह विचार आवश्यक नहीं है कि वे क्या खाएं और क्या न खाएं? यह प्रश्न केवल मनुष्य के संदर्भ में ही खड़ा होता है कि वह क्या, कब और कितना खाए? मनुष्य के संदर्भ में शाकाहार और मांसाहार के बीच निर्णय करने से पहले हमें यह देख लेना होगा कि प्रकृति ने मनुष्य की शारीरिक संरचना किस प्रकार की बनाई है। उसके आधार पर ही हमें यह निर्णय करना होगा कि उसका आहार क्या हो सकता है? यदि हम शाकाहारी और मांसाहारी प्राणियों की शारीरिक संरचना की दृष्टि से विचार करें, तो मानव के दाँतों और आँतों की शारीरिक संरचना उसे एक शाकाहारी प्राणी ही सिद्ध करती है। मांसाहारी प्राणियों के दाँत नुकीले होते हैं, ताकि वे अपने खाद्य को फाड़ सकें, जबकि शाकाहारी प्राणियों के दाँतों की बनावट ऐसी होती है कि वे अपने खाद्य को चबा सकें। मांसाहारी प्राणियों के पंजे एवं नख भी ऐसे होते हैं, जिससे वे अपने शिकार को फाड़ सकें, जबकि शाकाहारी प्राणियों के पंजे और नख मात्र पकड़ने के योग्य होते हैं, फाड़ने के योग्य नहीं होते। मानव की आँतों की बनावट और उसमें अम्ल आदि की उत्पत्ति भी शाकाहारी पशुओं के समान ही होती है। प्राकृतिक रूप से तो यही सिद्ध होता है कि मनुष्य की दैहिक-संरचना शाकाहारी है। एक मनुष्य शाकाहार पर अपना पूरा जीवन निकाल सकता है, किन्तु आज तक कोई भी मनुष्य पूर्णतः मांसाहारी-जीवन नहीं जिया है। जो राष्ट्र और समाज मांसाहारी हैं, वहाँ भी उनके आहार का साठ प्रतिशत भाग तो शाकाहार ही होता है। अतः मनुष्य के लिए शाकाहार प्राकृतिक आहार है और मांसाहार प्रकृति-विरूद्ध आहार है।39 वस्तुतः, शाकाहार एक सम्यक जीवनशैली है। जीवन जीने की एक सहयोगपूर्ण और सहअस्तित्वप्रधान पद्धति है। यह ऐसी जीवनशैली है, जो प्रकृति के संतुलन को बनाए रखते हुए मनुष्य को एक अच्छा मानव बनाने के लिए प्रयासरत है। 139 अहिंसा की प्रासंगिकता, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 61 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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