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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
रात्रिभोजन धार्मिक, आध्यात्मिक और स्वास्थ्य - सभी दृष्टियों से हानिप्रद है। अतीत-काल से लेकर वर्त्तमान युग के वैज्ञानिक भी रात्रिभोजन को उचित नहीं मानते। भले ही परिस्थितिवश उन्हें करना पड़ता है। आधुनिक सभ्यता में लोग 'डिनर' के नाम पर रात्रिभोजन को महत्त्व देते हैं। शादी, पार्टी और बड़े-बड़े कार्यक्रम में रात्रिभोज रखते हैं, पर यह आध्यात्म और शारीरिक- दोनों दृष्टियों से अनुचित है। जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में ही नहीं, चरक और सुश्रुत जैसे आयुर्वेद के ग्रन्थों में भी रात्रिभोजन से होने वाली हानियों का उल्लेख है, अतः जैनदर्शन का कहना है कि साधक को रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिए।
जैनदर्शन का भक्ष्य - अभक्ष्य विवेक और उसकी प्रासंगिकता
जीवनयात्रा के निर्वाह के लिए आहार आवश्यक है। जैनदर्शन में प्रत्येक प्राणी में चार संज्ञाओं की सत्ता मानी गई है आहार, भय, मैथुन और परिग्रह। इनमें भय, मैथुन और परिग्रह - इन तीन संज्ञाओं को तो मनःस्थिति पर अंकुश लगाकर उपशान्त कर सकते हैं, परन्तु आहार संज्ञा की पूर्ति तो जीव के जीवन-निर्वाह के लिए अति आवश्यक है, अतः आहार की पूर्णतया उपेक्षा संभव नहीं है। फिर भी, मनुष्य को विवेकशील प्राणी कहा गया है. (Man is a rational animal) । पाश्चात्य - दार्शनिक अरस्तु ने मनुष्य को एक विवेकशील या विचारशील प्राणी बताया है। मनुष्य चिन्तन और विवेक के द्वारा यह जान सकता है कि कौनसी वस्तु खाने लायक है और कौनसी नहीं ? यदि वह ऐसा नहीं करता है, तो वह पशुतुल्य समझा जाता है। खाद्य वस्तुएं तो संसार में हजारों हैं, पर कौनसी वस्तुएं हमारे जीवन के लिए या हमारे स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त हैं, या खाद्य हैं, इसका निर्णय तो हम अपने विवेक के द्वारा ही कर सकते हैं। जो आहार हमारे विचारों को, शरीर को स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता है, वह चाहे स्वादिष्ट भी हो, फिर भी वह हमारा खाद्य नहीं हो सकता। विवेकपूर्वक हमें उसका त्याग करना चाहिए । शुद्ध, सात्त्विक और शाकाहारी भोजन ही मनुष्य का खाद्य है। उसे उसका उपयोग कर अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र की शुद्धि करना चाहिए ।
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138 आहार निद्रा भय मैथुनन्च, समान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो, ज्ञानेन हीनाः पशुभि समानाः । ।
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धर्म का मर्म, पृ. 38
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