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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व गिद्ध, शंबर, सूअर, सर्प, बिच्छू, गोह आदि की निकृष्ट योनि में जन्म ग्रहण करता है, अतः समझदार और विवेकीजनों को रात्रिभोजन का त्याग अवश्य करना चाहिए । | 128 जो भव्य आत्मा हमेशा के लिए रात्रिभोजन का त्याग करता है, उस त्यागी को आधी उम्र के उपवास का फल प्राप्त होता है। 129 रात्रि में जो दोष लगते हैं, वे दोष (दिन के समय ) अंधेरे में भोजन करने से भी लगते हैं। क्योंकि अन्धकार में सूक्ष्म जीव दिखाई नहीं देते हैं, इसलिए रात को बनाया गया भोजन दिन में ग्रहण किया जाए, तो भी वह रात्रिभोजन तुल्य ही माना गया है। 94 पं. आशाधरजी ने 'सागारधर्मामृत 130 में रात्रिभोजन - त्याग के विषय में लिखा है। अहिंसाव्रत की रक्षा के लिए एवं मूलगुणों को निर्मल करने के लिए धीर व्रती को मन, वचन और काया से जीवनपर्यन्त के लिए रात्रि में चारों प्रकार के भोजन का त्याग करना चाहिए। इसी प्रकार, रत्नकरण्डक श्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, मूलाचार, भगवती आराधना में रात्रिभोजन का निषेध किया गया है। आचार्य हरिभद्र, हेमचन्द्र, देवसेन, चामुण्डराय, वीरनन्दी आदि सभी श्वेताम्बर - दिगम्बर आचार्यों ने रात्रिभोजन- त्याग को महाव्रती की रक्षा के लिए आवश्यक मानते हुए उसे छठवां अणुव्रत माना है। चाहे पूज्यपाद अकलंक विद्यानन्द श्रुतसागर आदि तत्त्वार्थसूत्र के कुछ व्याख्याकार रात्रिभोजन - विरमण-व्रत को छठवां व्रत या अणुव्रत न मानें, तथापि सभी ने रात्रिभोजन के दोषों का निरूपण किया है और इस बात पर बल दिया है कि रात्रिभोजन श्रमण के लिए एवं साधक-श्रावक के लिए सर्वथा त्याज्य है । बौद्ध धर्म में भिक्षुओं के लिए विकाल भोजन (दिन के बारह बजे के पश्चात् से लेकर दूसरे दिन 131 132 133 1 128 (क) उलूककाकमार्जार, गृद्ध संबरशुकराः योगशास्त्र, 3/67 (ख) उमास्वाति श्रावकाचार, 329 (ग) श्रावकाचारसारोद्धार 118 उद्धृत- श्रावकाचार संग्रह, भाग-3 129 करोति विरतिं धन्यो, यः सदा निशि भोजनात् योगशास्त्र 3/69 सोडवँ पुरूषायुव्रकस्य, स्यादवश्यमुपोषितः । । अहिंसाव्रत रक्षार्थ मूलव्रत विशुद्धवे । नक्तं भुक्तिं चतुर्धाऽपि सदा धीरस्त्रिधा व्यजेत् । - सागारधर्मामृत से उद्धृत, 4 / 24 131 सर्वार्थसिद्धि, 7/1 टीका, पृ. 343-44 132 तत्त्वार्थराजवार्तिक, 7/1 टीका, भाग-2, पृ. 534 133 तत्त्वार्थवार्तिक – 7 / 1 टीका, पृ. 5-458 134 तत्त्वार्थवृत्ति - 7/1 130 अहिवृश्चिक गोधाश्च जायन्ते रात्रिभोजनात् ।। Jain Education International , For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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