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________________ · तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - द्वितीय उद्देशक - कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ ७५ PER १०. प्रत्याख्यानावरण मान - जैसे लकड़ी को तैल आदि की मालिश से नमाया जा सकता है उसी प्रकार जो मान थोड़े उपायों से नमाया जा सके वह प्रत्याख्यानावरण मान है। ११. प्रत्याख्यानावरण माया - जैसे चलते हुए बैल के मूत्र की टेढ़ी लकीर हो जाती है। वह सूख जाने पर पवन आदि से मिट जाती है। इसी प्रकार जो माया सरलता पूर्वक दूर की जा सके, उसे प्रत्याख्यानावरण माया कहते हैं। १२. प्रत्याख्यानावरण लोभ - जैसे गाड़ी के पहिये का खंजन (कीट) साधारण परिश्रम से छूट जाता है, उसी प्रकार जो लोभ कुछ परिश्रम से दूर हो वह प्रत्याख्यानावरण लोभ है। १३. संज्वलन क्रोध - पानी में खींची हुई लकीर जैसे खींचने के साथ ही मिटती जाती है उसी प्रकार जो क्रोध शीघ्र ही शान्त हो जाय, उसे संज्वलन क्रोध कहते हैं। १४. संज्वलन मान - जैसे लता (बेलड़ी) या तिनका बिना परिश्रम के सहज में नमाया जा सकता है उसी प्रकार जो मान सहज ही छूट जाता है वह संज्वलन मानहै। १५. संज्वलन माया - छीले जाते हुए बांस के छिलके का टेढापन बिना प्रयत्न के सहज ही मिट जाता है, उसी प्रकार जो माया बिना परिश्रम के शीघ्र ही अपने आप दूर हो जाय वह संज्वलन माया है। '. १६. संचलन लोभ - जैसे हल्दी का रंग सहज ही छूट जाता है उसी प्रकार जो लोभ आसानी से स्वयं दूर हो जाय वह संज्वलन लोभ है। नोट - यहाँ पर जो अनन्तानुबन्धी आदि कषायों की (उदय) स्थिति 'यावज्जीवन' आदि बताई गयी है, वह आगमों में नहीं है। वह कर्म ग्रन्थ भाग एक की गाथा १८ में बताई गयी है। कर्म ग्रन्थ के रचनाकार श्री देवेन्द्रसूरिजी स्वयं इसे व्यवहार स्थिति कहते हैं। निश्चय स्थिति तो अन्तर्मुहूर्त की भी हो सकती है। कषायों की तीव्रता उत्कटता आदि के कारण अन्तर्मुहूर्त आदि की स्थिति में भी अनन्तानुबन्धीपना हो सकता है। आगम में (भगवती सूत्र शतक २५ उद्देश्क ६) कषाय कुशील की स्थिति देशोन करोड़ पूर्व की बताई गयी है। कषाय कुशील में निरन्तर संज्वलन कषाय का उदय तो रहता ही है। इस प्रकार संज्वलन कषाय की स्थिति देशोन करोड़ पूर्व की आगम से स्पष्ट हो जाती है। क्रोध आदि प्रत्येक कषायों की उदय स्थिति तो प्रज्ञापना सूत्र के १८ वें पद में अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं बताई गयी है। संज्वलन के चारों कषाय मिलकर देशोन करोड़ पूर्व तक रह सकते हैं। इसके आधार से शेष कषायों के चौक भी मिलकर इतने काल तक रह जाने की संभावना की जाती है। रागद्वेष-संज्वलन और प्रत्याख्यानावरणीय की हद में होने पर तो साधुपन और श्रावकपन टिक सकता है। यदि रागद्वेष की तीव्रता बढ़ जाती है, संज्वलन आदि की हद लांघ जाते हैं तो साधुपन और श्रावकपन नहीं टिकता है। अतः राग द्वेष कषायों पर काबू करने में साधु श्रावकों को प्रयत्नशील रहना चाहिए। इसी में उनके लिए हुए व्रतों की आराधना है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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