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________________ ७४ ************ प्रज्ञापना सूत्र २. अप्रत्याख्यान - जिस कषाय के उदय से देशविरति रूप अल्प (थोड़ा सा भी ) प्रत्याख्यान नहीं होता उसे अप्रत्याख्यान कषाय कहते हैं। इस कषाय से श्रावक धर्म की प्राप्ति नहीं होती। ३. प्रत्याख्यानावरण - जिस कषाय के उदय से सर्व विरति रूप प्रत्याख्यान रूक जाता है अर्थात् साधु धर्म की प्राप्ति नहीं होती, वह प्रत्याख्यावरण कषाय है। ४. संज्वलन - जो कषाय परीषह और उपसर्ग के आ जाने पर मुनियों को भी थोड़ा-सा जलाता है अर्थात् उन पर भी थोड़ा सा असर दिखाता है उसको संज्वलन कषाय कहते हैं। यह कषाय सर्वविरति रूप साधु धर्म में बाधा नहीं पहुँचाता परन्तु सबसे ऊँचे यथाख्यात चारित्र में बाधा पहुँचाता है। क्रोध आदि चार कषाय और उनकी उपमाएं इस प्रकार हैं - १. अनन्तानुबंधी क्रोध - पर्वत के फटने पर जो दरार होती है उसका मिलना (पुन: एक हो जाना) कठिन है उसी प्रकार जो क्रोध किसी उपाय से शांत नहीं होता वह अनन्तानुबंधी क्रोध है । **************** २. अनन्तानुबंधी मान जैसे पत्थर का खम्भा अनेक उपाय करने पर भी नहीं नमता है उसी प्रकार जो मान किसी भी उपाय से दूर नहीं किया जा सके वह अनन्तानुबंधी मान है। ३. अनन्तानुबंधी माया - जैसे बांस की कठिन जड़ का टेढ़ापन किसी भी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता उसी प्रकार जो माया किसी भी प्रकार से दूर नहीं हो अर्थात् सरलता रूप में परिणत न हो, वह अनन्तानुबंधी माया है। ४. अनन्तानुबंधी लोभ - जैसे किरमची रंग किसी भी उपाय से नहीं छूटता, उसी प्रकार जो लोभ किसी भी उपाय से दूर न हो, वह अनन्तानुबंधी लोभ है। ५. अप्रत्याख्यान क्रोध - सूखे तालाब आदि से मिट्टी के फट जाने पर जो दरार हो जाती है वह जब वर्षा होती है तब वापिस मिल जाती है, उसी प्रकार जो क्रोध विशेष परिश्रम से शान्त हो जाता है वह अप्रत्याख्यान क्रोध है। - ६. अप्रत्याख्यान मान - जैसे हड्डी अनेक उपायों से नमती है उसी प्रकार जो मान अनेक उपायों अति परिश्रमपूर्वक दूर किया जा सके वह अप्रत्याख्यान मान है। ७. अप्रत्याख्यान माया - जैसे मेंढे का टेढा सींग अनेक उपाय करने पर बड़ी मुश्किल से सीधा होता है उसी प्रकार जो माया अत्यंत परिश्रम से दूर गई जा सके, वह अप्रत्याख्यान माया है। Jain Education International ८. अप्रत्याख्यान लोभ - जैसे नगर का कीचड़ परिश्रम करने पर अति कष्ट पूर्वक छूटता है, उसी प्रकार जो लोभ अति परिश्रम से कष्ट पूर्वक दूर किया जा सके वह अप्रत्याख्यान लोभ है। ९. प्रत्याख्यानावरण क्रोध - बालू रेत में लकीर खींचने पर कुछ समय में हवा से वह लकीर वापिस भर जाती है उसी प्रकार जो क्रोध कुछ उपाय से शांत हो वह प्रत्याख्यानावरण क्रोध है । For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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