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________________ तेईसवाँ कर्म प्रकृति पद - द्वितीय उद्देशक - कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ ६९ 基 英英英英英英英英英英是喜其 जाने पर उच्च नीच आदि रूप में एवं जाति, कुल, बल आदि के अच्छे बुरे के रूप में प्रसिद्धि होती ही है। वह प्रसिद्धि गोत्र कर्म के उदय से होती है। अतः गोत्र कर्म को सातवें स्थान पर लिया गया है। उच्च गोत्र के उदय होने पर प्रायः दान लाभादि में बाधक कर्मों का क्षयोपशम होता है। जब कि नीच गोत्र का उदय होने पर दानादि में अन्तराय (रुकावट) रहती है। अत: गोत्र के बाद अन्तराय कर्म का स्थान 'आठवाँ' लिया गया है। ____ इस प्रकार कर्मों के अनुक्रम का उपर्युक्त कारण होने से घाती अघाति कर्मों को अलग-अलग नहीं बताकर इसी क्रम (पूर्वानुपूर्वी अनुक्रम) से शास्त्रकारों ने बताया है। णाणावरणिजे णं भंते! कम्मे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते। तंजहा - आभिणिबोहियणाणावरणिजे जाव केवलणाणावरणिजे॥६१०॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! ज्ञानावरणीय कर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! ज्ञानावरणीय कर्म पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय यावत् केवल ज्ञानावरणीय। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ कही गई है जो इस प्रकार है - १.आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय - मन और पांच इन्द्रियों के निमित्त से जीव को जो ज्ञान होता है उसे आभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं। जो कर्म आभिनिबोधिक ज्ञान का आवरण करे उसे आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कहते हैं। २. श्रुत ज्ञानावरणीय - शास्त्र को द्रव्य श्रुत कहते हैं और उसके सुनने से जो ज्ञान होता है उसे भावश्रुत कहते हैं। इन दोनों का जो आवरण करता है उसे श्रुत ज्ञानावरणीय कहते हैं। ३. अवधि ज्ञानावरणीय - अतीन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना आत्मा को रूपी पदार्थों का जो मर्यादित ज्ञान होता है उसको अवधिज्ञान कहते हैं। उस ज्ञान का जो आवरण करे, उसे अवधि ज्ञानावरणीय कहते हैं। ४. मनःपर्यव ज्ञानावरणीय - अढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के मन की बात जिस ज्ञान से जानी जाय उसे मनःपर्यव ज्ञान कहते हैं। उसको आवरण करने वाला मनःपर्यव ज्ञानावरणीय कहलाता है। ५. केवल ज्ञानावरणीय - केवल अर्थात् प्रतिपूर्ण जिसके समान दूसरा कोई ज्ञान नहीं है अर्थात् लोकालोक की सम्पूर्ण रूपी अरूपी वस्तु को जानने वाला केवलज्ञान कहलाता है। उसका जो आवरण करे (ढके) उसको केवल ज्ञानावरणीय कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
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