SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७० प्रज्ञापना सूत्र 2 दसणावरणिजे णं भंते! कम्मे कइविहे पण्णत्ते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते। तंजहा -णिहापंचए य दंसणचउक्कए य। णिहापंचए णं भंते! कविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते। तंजहा - णिहा जाव थीणद्धी ( थीणगिद्धी)। दंसणचउक्कए णं पुच्छा? गोयमा! चउबिहे पण्णत्ते। तंजहा-चक्खुदंसणावरणिजे जाव केवलदसणावरणिजे॥६११॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! दर्शनावरणीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है? .. उत्तर - हे गौतम! दर्शनावरणीय कर्म दो प्रकार का कहा है। निद्रा पंचक और दर्शन चतुष्क। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! निद्रा पंचक कितने प्रकार का कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! निद्रा पंचक पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-निद्रा यावत् स्त्यानर्द्धि (स्त्यानगृद्धि)। भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन् ! दर्शनचतुष्क कितने प्रकार का कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! दर्शन चतुष्क चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - चक्षुदर्शनावरणीय यावत् केवलदर्शनावरणीय। विवेचन - वस्तु के सामान्य धर्म को-सत्ता के प्रतिभास को दर्शन कहते हैं। आत्मा की दर्शन शक्ति को ढकने वाला कर्म दर्शनावरणीय कहलाता है। दर्शनावरणीय कर्म के दो भेद कहे गये हैं - १. निद्रा पंचक और २. दर्शन चतुष्क। इस तरह दर्शनावरणीय के कुल नौ भेद होते हैं। निद्रा पंचक के भेद इस प्रकार हैं - १.निद्रा - सोया हुआ आदमी जरा सी खटखटाहट से या आवाज से जाग जाता है उस नींद को 'निद्रा' कहते हैं। २. निद्रा निद्रा - जोर से आवाज देने पर या देह हिलाने से जो आदमी बड़ी मुश्किल से जागता है उसकी नींद को 'निद्रानिद्रा' कहते हैं। ३. प्रचला - खड़े-खड़े या बैठे-बैठे जिसको नींद आती है उसकी नींद को 'प्रचला' कहते हैं। ४. प्रचला प्रचला - चलते फिरते जिसको नींद आती है उसकी नींद को 'प्रचला प्रचला' कहते हैं। ५. स्त्यानद्धि (स्त्यानगृद्धि) - जो दिन में सोचे हुए काम को रात मे नींद की हालत में कर डालता है उस नींद को स्त्यानगृद्धि कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आवे उसका नाम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004096
Book TitlePragnapana Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages358
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy