________________
तेवीसइमं कम्मपगडिपयं : बीओ उद्देसओ
तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद : द्वितीय उद्देशक .. प्रज्ञापना सूत्र के तेइसवें पद के प्रथम उद्देशक में ज्ञानावरणीय आदि कर्म का अनुभाव (विपाक) कहा गया है। इस दूसरे उद्देशक में सूत्रकार उन्हीं ज्ञानावरणीय आदि कर्म की उत्तर प्रकृतियों का कथन करते हैं जिसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियाँ कइणं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ। तंजहा - णाणावरणिजं जाव अंतराइयं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! कर्म प्रकृतियाँ कितनी कही हैं ? उत्तर - हे गौतम! कर्म प्रकृतियाँ आठ कही गई हैं। वह इस प्रकार है - ज्ञानावरणीय यावत्
अन्तराय।
विवेचन - ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों के क्रम का कारण इस प्रकार समझा जाता है - ज्ञान व दर्शन जीव का मौलिक लक्षण है। इन दोनों में भी ज्ञान 'विशेष' उपयोग रूप होने से प्रधान (प्रथम स्थान पर) माना गया है। दर्शन 'सामान्य' उपयोग रूप होने से दूसरे स्थान पर लिया है। अतः इन दो मौलिक गुणों को आवृत्त करने वाले कर्मों में पहले ज्ञानावरणीय व फिर दर्शनावरणीय को लिया है। ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीय कर्म के उदय से जीव को सूक्ष्म व सूक्ष्म तर पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है - (कर्मवाद के सिद्धान्त का न तो ज्ञान होता है न ही श्रद्धा होती है) अतः सुख दुःख का अनुभव होता है। इस कारण से वेदनीय कर्म को तीसरे स्थान पर लिया गया है। इष्ट अनिष्ट पदार्थों के संयोग वियोग से सुख-दुःख होता है। इससे इन पदार्थों में राग द्वेष की प्रवृत्ति होती है। अतः राग द्वेष रूपी मोहनीय कर्म को चौथे स्थान पर लिया गया है। मोहनीय कर्म के उदय से मूढ़ बनी आत्मा महारंभ महापरिग्रह के द्वारा नरकादि गतियों रूप आयुष्य कर्म बान्धता है। अतः आयुष्य कर्म को पांचवें स्थान पर लिया गया है। ___आयुष्य बन्ध होने पर उसके साथ-साथ छह बोल-गति, जाति, स्थिति, अवगाहना, अनुभाग और प्रदेश का बन्ध भी होता ही है एवं उन नरकादि गति, पंचेन्द्रिय आदि जाति इत्यादि नाम कर्म की प्रकृतियों का अवश्य उदय होता है। अतः नाम कर्म को छठे स्थान पर लिया है। नरकादि गतियों में
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org